¤ स्वामी जी की मौत के विषय में झूठे प्रचार का उद्देश्य? ---Link:-Unicode Book Part: one-Two-and-Last
स्वामी जी की जीवनी लिखने वाले आर्य समाजी लेखक इस घटना को सत्य मानते हैं। उनके लेखन पर विश्वास करके हम भी स्वामी जी की मृत्यु का कारण उन्हें विष देना ही मानते थे लेकिन इंटरनेट पर हमारी इस पुस्तक का प्रथम संस्करण पढ़कर एक आर्य भाई ने कहा कि उन्हें विष देने की घटना झूठी है। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र’ नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया है। उनके जीवन की घटनाओं के विषय में वही ग्रन्थ प्रामाणिक है। उसमें यह घटना नहीं है।
दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला 2012 लगा तो हमने एक सहयोगी मित्र से आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र’ मंगवाकर पढ़ी तो वाक़ई उसमें रसोईये से विष देने के सम्बंध में स्वामी जी का कोई कथन नहीं मिला।
स्वामी जी ने अपने रसोईये से तो क्या किसी से भी नहीं कहा कि उन्हें किसी ने ज़हर दिया है। स्वामी जी के नाम पर आर्य समाजी प्रचारक बरसों से इतना बड़ा झूठ बोलकर आम लोगों को धोखा क्यों देते आ रहे हैं?
शायद स्वामी जी को लोगों की नज़रों में ‘शहीद’ का सम्मानित दर्जा दिलाने के लिए ही यह झूठ आम किया गया है। झूठी बात फैलाते समय उन्होंने यह क्यों नहीं सोचा कि जब कभी यह झूठ पकड़ा जाएगा तो लोगों में ‘आर्य समाज’ की विश्वसनीयता ही ख़त्म हो जाएगी?
¤ स्वामी जी बूढ़े को जवान करने वाली भस्म बनाना जानते थे
आयुर्वेद के विशेड्ढज्ञ बताते हैं कि यदि किसी धातु की भस्म कच्ची रह जाए तो वह विड्ढ का काम करती है। लंबे समय तक इन दवाओं को लेने के नतीजे में भी उनकी मृत्यु की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृ. 79 पर पं. गंगाराम का बयान है कि
‘हमने कहा कि कृष्णाभ्रक हमने एक ब्रह्मचारी से लिया था जिसके एक चावल से वृद्ध को यौवनशक्ति प्राप्त होती है। सात दिन की सेवनविधि है। स्वामी जी कहने लगे कि कृष्णाभ्रक मेरे पास है, ले लेना और उन्होंने पुड़िया बांध कर दी।’
इसी पुस्तक के पृष्ठ 80 पर स्वामी जी के द्वारा नित्य मालकंगनी के 5 दाने खाने और पारे की भस्म बनाने की विधि बताने का वर्णन भी आया है। जिससे सिद्ध होता है कि स्वामी दयानन्द जी शक्तिवर्धक भस्में और दवाएं खाया करते थे। इससे इस सम्भावना को बल मिलता है कि उन्होंने अमर होने के लिए स्वयं पर किसी अन्य आयुर्वेदिक दवा का परीक्षण किया होगा और उसके साइड इफ़ेक्ट से स्वामी जी बीमार पड़ गए होंगे। आखि़र वह अपने घर से अमर होने के लिए ही निकले थे।
इस पहलू को आर्य समाजी प्रचारकों ने भी छिपाए रखा है कि स्वामी जी जब मथुरा में पढ़ रहे थे, तब से वह अभ्रक और पारे की भस्म बनाते आ रहे थे-
‘स्वामी जी कभी-कभी मथुरा में अभ्रक फूंकते और पारे की गोली भी बांधा करते थे।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृ. 57)
¤ भांड के समान स्तुति?
उनके इस प्रकार के स्वकथन विरूद्ध आचरण के बाद उनके इस उपदेश का क्या अर्थ रह जाता है-
‘‘नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिए-जैसे ‘न्यायकारी’ ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सबका यथावत न्याय करता है वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादश., पृष्ठ 210)
‘इससे फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना है। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 120)
(12) जब न्यायकारी ईश्वर दुष्टों को क्षमा न करके दण्ड देता है तो दयानन्दजी ने ईश्वर का गुण ‘न्यायकारी’ स्वयं क्यों ग्रहण नहीं किया?
(13) अगर ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के विपरीत चलते हुए उसकी स्तुति आदि करना दयानन्द जी की द‘ष्टि में भांड के समान व्यर्थ चेष्टा है तो क्या दयानन्द जी की स्तुति व उपासना आदि भी व्यर्थ और निष्फल ही थी?
(14) यदि दयानन्द जी परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव जैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव नहीं बना पाये थे तो क्या वह परमेश्वर को प्राप्त हो पाए होंगे जबकि उनके पास ‘सीढ़ी’ भी नहीं थी?
¤ क्या स्वामी दयानन्द जी की अविद्या रूपी गाँठ कट गई थी?
भिद्यते हृदयग्रिन्थरिद्दद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तिस्मनदृष्टि पराऽवरे ।।1।।मुण्डक।।
जब इस जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती, सब संशय छिन्न होते और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी उस परमात्मा जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है, उसमें निवास करता है। (सत्यार्थ प्रकाश, नवम0, पृष्ठ 171)
ईश्वर का सामीप्य पाने के लिए यहां तीन बातों पर बल दिया गया है-
जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती है।
सब संशय छिन्न होते हैं।
सब दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं।
(15) क्या स्वामी दयानन्द जी ने दुष्टों को क्षमा करके और उन्हें तहसीलदार आदि अधिकारियों के दण्ड से छुड़वाकर दुष्टों का उत्साहवर्धन नहीं किया?
यदि यह सही है तो स्वामी दयानन्द जी में उपरोक्त तीसरे बिन्दु वाली विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती ।
(16) न ही उनके सब संशय छिन्न हो सके थे क्योंकि वह स्वयं ही एक सिद्धान्त निश्चित करते हैं और जब आर्य सभासद उसका पालन करते हैं तो फिर स्वयं ही उन्हें दुष्टों को दण्ड न देने की बात कहते हैं। यह उनके संशयग्रस्त होने का स्पष्ट उदाहरण है या नहीं?
(17) क्या यह अविद्या की बात न कही जाएगी कि एक आदमी सारे जगत को उस बात का उपदेश करे जिस पर न तो स्वयं उस को विश्वास हो और न ही उस पर आचरण करे जैसे कि उपरोक्त दुष्टों को क्षमा न करने का उपदेश करना और स्वयं लगातार क्षमा करते रहना?
¤ बड़े अपराधी को माफ़ी तो छोटे को सज़ा क्यों?
कोई आर्य समाजी भाई कह सकता है कि सन्यासी उदार होता है, इसलिए वह दुष्टों को क्षमा कर सकता है। स्वयं स्वामी जी ने भी अनूपशहर में अपने विषय में ऐसा कहा था लेकिन स्वामी जी सब दुष्टों को क्षमा नहीं करते थे। उनके जीवन में कई घटनाएं ऐसी मिलती हैं। जबकि उन्होंने दुष्टों को दण्ड दिया और दिलाया है।
उनके साथ एक कल्लू कहार भरतपुर का रहने वाला, जिस पर स्वामी जी का बड़ा प्रेम और भरोसा था, वह कहार स्वामी जी का छः सात सौ रुपये का माल लेकर खिड़की से भाग गया। माल के चुराये जाने के विषय में रामानन्द, बिहारी, रामचन्द्र और देवदत्त आदि पर भी सन्देह था। स्वामी जी ने इनकी शिकायत अधिकारियों से की।
‘उनके बयान अधिकारियों द्वारा लिए गये, परन्तु वे जेलख़ाने नहीं भिजवाए गए। ऐसी ऐसी कार्यवाहियों के होने पर स्वामी जी का इन लोगों से ही नहीं प्रत्युत इस रियासत के मनुष्यों पर से विश्वास उठ गया और उस नगर से चले जाने का विचार किया।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.820)
(18) हत्या की अपेक्षा चोरी छोटा अपराध होता है। स्वामी जी ने बड़े अपराधी को माफ़ कर दिया और चोरी के मुल्ज़िम को बल्कि संदिग्ध व्यक्तियों को भी जेल भिजवाने की कोशिश की। क्या यह उनके संशयग्रस्त होने का प्रमाण नहीं है?
स्वामी जी के शिष्य गुसाईं बलदेव गिरी ने भी एक घटना का वर्णन किया है कि अहे उड़ेस ज़िला एटा का एक ठाकुर आकर स्वामी जी के बराबर बैठ गया। बलदेव जी ने उससे कहा कि तू अलग बैठ, स्वामी जी के बराबर बैठना तुझ जैसे गृहस्थियों का काम नहीं है। इसी बात पर दोनों में पहले तकरार हुई और फिर मारपीट हो गई। ठाकुर के साथ चार आदमी भी थे।
‘पहले के हाथ से जब लाठी छूट गई तो हमने लेकर सबके चूतड़ों पर दो-दो लगाई और ठाकुर का जूड़ा पकड़ कर गिरा दिया। इस पर वे सब फिसलते-फिसलते गंगा के कीचड़ में जा गिरे और फंस गए।...इस लड़ाई के पश्चात् हमको यह ध्यान आया कि कहीं ऐसा न हो कि स्वामी जी हमसे क्रोधित हो गये हों और हमारे भोजन को ग्रहण न करें परन्तु स्वामी जी ने हमारी ओर देखा और कहा-‘श्रृणु. हस्तप्रक्षालनं कृत्वा भोजनमानय’ अर्थात् सुनो, हाथ धोकर भोजन ले आओ। मैं भोजन ले गया। स्वामी जी ने भोजन किया और हमसे बहुत प्रसन्न हुए।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.114)
¤ वेदों में तोप और बन्दूक़ें?
(19) यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह ‘वेद’ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे?
इतिहासकार बताते हैं कि भारत में तोप मुग़ल और बन्दूक़ अंग्रेज़ लेकर आए। स्वामी जी ने बताया है कि वेद में तोप और बन्दूक़ का ज़िक्र शतघ्नी और भुशुण्डी के नाम से मिलता है। यह एक नई जानकारी है। स्वामी जी के अनुसार आर्यों ने सृष्टि के आदि में अर्थात आज से लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार वर्ष पहले ही तोप और बन्दूक़ें बना ली थीं। देखिए उनका वेदार्थ-
‘हे मनुष्यो! तुम लोग सब काल में उत्तम बल वाले हो। किन्तु तुम्हारे (आयुधा) अर्थात् आग्नेयास्त्रादि अस्त्र और (शतघ्नी) तोप (भुशुण्डी) बन्दूक, धनुषबाण और तलवार आदि शस्त्र सब स्थिर हों।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरस्तुति., पृ.114)
(20) क्या वास्तव में आर्य लोगों ने वेद पढ़कर तोप और बन्दूक़ का अविष्कार आज से लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार वर्ष पहले ही कर लिया था?
¤ क्या दयानन्द जी वेदों का वास्तविक अर्थ जानते थे?
स्वामी दयानन्द जी एक और वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
‘इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृष्ठ 107)
(21) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
स्वामी जी के वेदार्थ को सही माना जाए तो वेद ईश्वरीय वचन सिद्ध नहीं होता या फिर इस मन्त्र का सही अर्थ कुछ और है और स्वामी जी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका ग़लत अर्थ निकाल लिया।
¤ सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों पर वेद और वैदिक आर्य?
इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्द जी ने यह कल्पना कर डाली है कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्यादि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी इन्हीं चारों वेदों का पाठ किया जा रहा है। उन्होंने अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
‘जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे?’ (सत्यार्थ., अष्टम. पृ. 156)
(22) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा और अन्य ग्रहों पर मनुष्य आबाद हैं और वे वहां वेदपाठ और हवन कर रहे हैं?
(23) चन्द्रमा पर कई वैज्ञानिक जाकर लौट आए हैं। सेटेलाइट के ज़रिये चन्द्रमा
के हर हिस्से के फ़ोटो ले लिए गए हैं। वहां अभी तक तोप और बन्दूक़ बनाने वाली कोई फ़ैक्ट्री क्यों नहीं मिल पाई?
(24) क्या सूर्य पर वेदपाठी आर्यों के रहने और तोप और बन्दूक़ें रखने की बात कहना पौराणिकों से बड़ी गप्प मारना नहीं कहलाएगा?
अतः सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आर्य समाजियों के पुराण सिद्ध होते हैं।
¤ क्या परमेश्वर भी कभी असफल हो सकता है?
‘परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है?’ (सत्यार्थ., अष्टम. पृ. 156)
(25) स्वामी जी ने परमेश्वर की सफलता को सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्रों पर मनुष्यादि के निवास पर निर्भर समझा है। इन लोकों में अभी तक किसी सभ्यता का पता नहीं चला है, तो क्या परमेश्वर को असफल और निष्प्रयोजन काम करने वाला समझ लिया जाये? या यह माना जाए कि स्वामी जी इन सब लोकों की उत्पत्ति से परमेश्वर के वास्तविक प्रयोजन को नहीं समझ पाए?
अतः ज्ञात हुआ कि स्वामी जी ईश्वर, जीव और प्रकृति के बारे में सही जानकारी नहीं रखते थे। वास्तव में स्वामी जी ने वेदों का अर्थ नहीं समझा बल्कि उनके मंत्रों में अपने अर्थ की कल्पना की है। जो वेदों के वास्तविक मन्तव्य को जानने समझने के बजाए उनके भावार्थ के नाम पर अपनी कल्पनाएं गढ़कर लोगों को गुमराह करे, उसे वेदों का शोधक कहना ग़लत है।
¤ स्वामी जी की कल्पना और सौर मण्डल
‘इसलिए एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ 156)
यह बात भी पूरी तरह गलत है। स्वामी जी ने सोच लिया कि जैसे पृथ्वी का केवल एक उपग्रह ‘चन्द्रमा’ है। इसी तरह अन्य ग्रहों का उपग्रह भी एक-एक ही होगा। The Wordsworth Encyclopedia 1995 के अनुसार ही मंगल के 2, नेप्च्यून के 8, बृहस्पति के 16 व शानि के 20 उपग्रह खोजे जा चुके थे। आधुनिक खोजों से इनकी संख्या में और भी इज़ाफा हो गया ।
सन् 2004 में अन्तरिक्षयान वायेजर ने दिखाया कि शनि के उपग्रह 31 से ज़्यादा हैं। (द टाइम्स ऑफ इण्डिया, अंक 2-07-04, मुखपृष्ठ)
इसके बाद की खोज से इनकी संख्या में और भी बढ़ोतरी हुई है। अंतरिक्ष अनुसंधानकर्ताओं ने ऐसे तारों का पता लगाया है जिनका कोई ग्रह या उपग्रह नहीं है।
PSR 19+16 नामक प्रणाली में एक दूसरे की परिक्रमा करते हुए दो न्यूट्रॉन तारे हैं।’ (समय का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 96, ले. स्टीफेन हॉकिंग संस्करण 2004, प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन प्रा. लि0, नई दिल्ली-2)
‘खगोलविदों ने ऐसी कई प्रणालियों का पता लगाया है, जिनमें दो तारे एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। जैसे CYGNUS X-1, सिग्नस एक्स-1’ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्ठ 100)
(26) वेदों में विज्ञान सिद्ध करने के लिए स्वामी जी ने जो नीति अपनाई है उससे वेदों के प्रति संदेह और अविश्वास ही उत्पन्न होता है। क्या इससे खुद स्वामी जी का विश्वास भी ख़त्म नहीं हो जाता है ?
¤ आकाश में सर्दी-गर्मी होती है, सर्दी से परमाणु जम जाते हैं, भाप से मिलकर किरण बलवाली होती है?
‘... क्योंकि आकाश के जिस देश में सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी की छाया रोकती है, उस देश में शीत भी अधिक होती है। ... फिर गर्मी के कम होने और शीतलता के अधिक होने से सब मूर्तिमान पदार्थो के परमाणु जम जाते हैं। उनको जमने से पुष्टि होती है और जब उनके बीच में सूर्य की तेजोरूप किरणें पड़ती हैं तो उनमें से भाप उठती है। उनके योग से किरण भी बलवाली होती है।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ 145 व 146)
(27) सर्दी-गर्मी धरती पर होती है आकाश में नहीं और वह भी पृथ्वी द्वारा सूर्य के प्रकाश को रोकने की वजह से नहीं होती। पृथ्वी की छाया भी किसी अन्य ग्रह पर नहीं पड़ती।
(28) और न ही सर्दी बढ़ने से सब चीज़ों के परमाणु जमते हैं। टुण्ड्रा प्रदेश की तेज़ सर्दी में भी सब चीज़ों के परमाणु नहीं जमते। पता नहीं परमाणु के सम्बन्ध में स्वामी जी की कल्पना क्या है?
(29) भाप से मिलकर प्रकाश को भला क्या बल मिलेगा?
(30) यह वेदों का कथन है या स्वयं स्वामी जी की कल्पना?
¤ सृष्टि संरचना की ग़लत कल्पना को वैदिक सिद्धान्त समझ बैठे स्वामी जी?
‘... सबसे सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात जो काटा नहीं जाता उसका नाम परमाणु, साठ परमाणुओं से मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उसका दूना होने से पृथ्वी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिलाकर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं।’ (सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम. पृ.152)
हरेक अणु में 60 परमाणु होते हैं। ऐसा कहना विज्ञान के विरुद्ध है।
¤ परमाणु टूटने के साथ ही स्वामी जी का दर्शन मिथ्या सिद्ध हो गया
परमाणु को अविभाज्य मानना भी ग़लत है। दरअसल प्राचीन काल से भारतीय दर्शन में परमाणु का न टूटना बताया गया है और स्वामी जी के काल तक परमाणु को तोड़ना संभव नहीं हुआ था। इसलिए वह परमाणु को अविभाज्य लिख गए हैं परन्तु अब परमाणु को तोड़ना संभव है। विदेशी वैज्ञानिकों ने अपने विज्ञान से परमाणु को तोड़ डाला। भारत के वैज्ञानिकों ने उनसे यह विज्ञान सीखा। आज भारत में कई ‘परमाणु रिएक्टर’ इसी सिद्वान्त के अनुसार ऊर्जा उत्पादन करते हैं। परमाणु के टूटने के बाद स्वामी जी का परमाणु विज्ञान व्यर्थ और कल्पना मात्र सिद्ध हुआ। दरअसल यह कोई वैदिक सिद्धान्त नहीं है बल्कि एक दार्शनिक मत है। विदेशी वैज्ञानिकों ने जैसे अविष्कार बिना वेद पढ़े ही कर दिए हैं, आर्य समाजियों को अपने गुरूकुलों में वेद पढ़कर उनसे बड़े अविष्कार कर दिखाने थे। वे ऐसा कुछ नहीं कर पाए, सिवाए दूसरों की मज़ाक़ उड़ाने और डींग हाँकने के। परमाणु टूट गया लेकिन फिर भी वे दर्शन की उन पुरानी मान्यताओं को नहीं छोड़ पाए, जिन्हें भारतीय वैज्ञानिकों ने त्याग दिया है।
आग, पानी, हवा और पृथ्वी की संरचना का वर्णन भी विज्ञान विरूद्ध है। उदाहरणार्थ चार द्वयणुक अर्थात 8 अणुओं के मिलने से नहीं बल्कि हाइड्रोजन के 2 और ऑक्सीजन का 1 अणु, कुल 3 अणुओं के मिलने से जल बनता है। इसी तरह पृथ्वी भी पांच द्वयणुक से नहीं बनी है बल्कि कैल्शियम, कार्बन, मैग्नीज़ आदि बहुत से तत्वों से बनी है और हरेक तत्व की आण्विक संरचना अलग-अलग है। वायु के विषय में भी स्वामी जी का मत ग़लत है। वायु भी दो अणुओ से नहीं बनती। जो बात स्वामी जी ने जैनियों के विषय में कही है। वह स्वयं उन पर ही चरितार्थ हो रही है। देखिए-
(31) ‘स्थूल वात का भी यथावत ज्ञान नहीं तो परम सूक्ष्म सृष्टिविद्या का बोध कैसे हो सकता है?’ (सत्याथ प्रकाश, द्वादशसमुल्लास, पृष्ठ 294)
¤ अग्नि के विषय में भी स्वामी जी का मत ग़लत है
अग्नि 3 द्वयणुक अर्थात 6 अणुओं के मिलने से नहीं बनती। जैसा कि स्वामी ने कहा है। उन्होंने जीवन भर हवन किया लेकिन कभी 6 अणु मिलाकर आग नहीं जलाई और न ही कोई आर्य विद्वान आज ऐसा कर सकता है।
विज्ञान के अनुसार अग्नि दहनशील पदार्थों का तीव्र आक्सीकरण है। जिससे ऊष्मा, प्रकाश और कार्बन डाई आॅक्साईड जैसे अन्य अनेक रासायनिक प्रतिकारक उत्पाद उत्पन्न होते हैं। अग्नि को बुझाना हो तो ईंधन और आक्सीजन में से किसी एक को अलग कर दिया जाता है।
यदि स्वामी जी के मत को मान लिया जाता तो देश की सारी उन्नति ठप्प हो जाती। उनके विचार आज प्रासंगिक नहीं रह गये हैं। समय ने उन्हें रद्द कर दिया है। जिन लोगों को म्लेच्छ कहकर हेय समझा गया, देश के वैज्ञानिकों ने उन्हीं का अनुकरण करके उन्नति की है।
(32) स्वामी जी स्थूल अग्नि के विषय में सही ज्ञान नहीं रखते थे। ऐसे में ईश्वर और आत्मा जैसे सूक्ष्म तत्व के विषय में उनकी जानकारी का विश्वास कैसे किया जा सकता है?
(33) यदि प्रकृति के विषय में अभारतीयों का ज्ञान सत्य और श्रेष्ठ हो सकता है तो फिर ईश्वर और जीव के विषय में क्यों नहीं हो सकता?
¤ सब एक माता पिता की सन्तान हैं
सत्य की प्राप्ति के लिए शठवृत्ति, भेदभाव और अहंकार का त्याग ज़रूरी है। वैसे भी सब मनु की सन्तान हैं- ‘जनं मनुजातं’ (ऋग्वेद 1,45,1)
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् धरती के सब मनुष्य एक परिवार हैं । विभिन्न नस्लों के डीएनए पर रिसर्च करने के बाद आधुनिक वैज्ञानिकों ने धरती के सभी मनुष्यों में एक ही जोड़े का डीएनए पाया है अर्थात सब मनुष्य एक ही स्त्री-पुरूड्ढ की सन्तान हैं, जैसा कि इसलाम कहता है।
मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा ।
सम्यग्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ।।
‘भाई, भाई से और बहन, बहन से द्वेष न करे। एक मन और गति वाले होकर मंगलमय बात करें।’ (अथर्ववेद 3,30,3)
वैमनस्य और नफ़रत फैलाना छोड़कर सद्भावना प्रेम, शांति, एकता, ज्ञान और उन्नति का माहौल बनाना चाहिए। अन्य देशवासी भाई बहनों के पास भी ईश्वरीय ज्ञान है। उनसे ज्ञान प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए। यही सर्वहितकारी और मंगलमय बात है।
¤ वेद में क्यों नहीं मिलता स्वामी जी का बताया वेदमंत्र?
स्वामी जी की यह कल्पना भी ग़लत निकली कि
‘आदि में अनेक अर्थात् सैकड़ों सहस्त्रों मनुष्य उत्पन्न हुए। और सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता है कि मनुष्य अनेक माँ-बाप की सन्तान हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.150)
...और वह प्रमाण भी झूठा निकला, जो इस मान्यता की पुष्टि में उन्होंने इससे पहले लिखा है कि
‘‘क्योंकि ‘मनुष्या ऋड्ढयश्च ये। ततो मनुष्या अजायन्त’ यह यजुर्वेद में लिखा है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.150)
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य यह है कि उपरोक्त मंत्र यजुर्वेद में है ही नहीं। स्वामी जी ने एक ऐसी मान्यता का और एक ऐसे मंत्र का प्रचार कर दिया जो कि वेद में नहीं है। आर्य समाजी विद्वान भी ढूंढ ढूंढ कर थक गए। उन्हें भी वेद में यह प्रमाण नहीं मिला। उन्हें स्वामी जी की रचनाओं को युद्ध करते हुए 140 वर्ष से ज़्यादा हो गए लेकिन उनकी रचनाएं फिर भी युद्ध नहीं हो पाईं। उपरोक्त अशुद्धि आज भी सत्यार्थप्रकाश में विद्यमान है। जो कि वेद विषय में स्वामी जी की विश्वसनीयता समाप्त करने के लिए काफ़ी है।
(34) या तो स्वामी जी को यही पता न था कि यह मंत्र वेद का नहीं है या वह जान बूझ कर वेद के नाम पर झूठे प्रमाण दे दिया करते थे जैसा कि बहुत से गुरुओं की आदत है?
¤ वेदविरुद्ध पोपलीला चलाने वाला नास्तिक होता है
स्वामी जी कहते हैं-
‘नास्तिक वह होता है जो वेद ईश्वर की आज्ञा विरुद्ध पोपलीला चलावे।’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.232)
स्वामी दयानन्द जी के सिद्धान्त पर स्वयं उनकी मान्यताओं को परखा जाए तो-
(35) क्या स्वयं उन की मान्यताएं भी वेद ईश्वर की आज्ञा विरूद्ध पोपलीला नहीं ठहरतीं?
(36) स्वामी जी क्या सिद्ध होते हैं, आस्तिक या नास्तिक?
ये सवाल आप अपनी आत्मा से पूछिये, वहां से आपको तुरन्त सही जवाब मिल जाएगा।
¤ ईश्वरीय ग्रन्थ में झूठ नहीं होता
‘जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरोक्त, अन्य नहीं। और जिसमें सृष्टिक्रम प्रत्यक्षादि प्रमाण आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरूद्ध कथन न हो वह ईश्वरोक्त। जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्ठ 135)
(37) क्या वाक़ई वेदों में सृष्टिक्रम प्रत्यक्षादि प्रमाण के अनुकूल निर्भ्रम ज्ञान है? जो कसौटी ख़ुद स्वामीजी ने निश्चित की है, क्या वेद उस पर पूरे उतरते हैं?
¤ सूर्य किसी लोक या केन्द्र के चारों ओर नहीं घूमता
स्वामी जी के वेदार्थ का एक और नमूना देख लीजिए-
‘जो सविता अर्थात सूर्य ... अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता।’
(यजुर्वेद, अ033, मं. 43/सत्यार्थप्रकाश, अष्टम. पृ. 155)
(38) यह बात भी सृष्टि नियम के विरुद्ध है। एक बच्चा भी आज यह जानता है कि सूर्य न केवल अपनी धुरी पर बल्कि किसी केन्द्र के चारों ओर भी पूरे सौर मण्डल सहित चक्कर लगा रहा है। तब सृष्टिकर्ता परमेश्वर अपनी वाणी वेद में असत्य बात क्यों कहेगा? देखिये-
‘सूर्य अपनी धुरी पर 27 दिन में एक चक्कर पूरा करता है।’
(हमारा भूमण्डल, कक्षा 6, भाग 1, पृष्ठ 9, बेसिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश, लेखक- अंजु गौतम आदि)
‘तुम्हें यह जानकर बड़ा आश्चर्य होगा कि हमारा सूर्य बड़ी तेज़ी से चक्कर लगाते हुए लगभग 25 करोड़ वर्ष में अपनी आकाशगंगा की एक परिक्रमा पूरी करता है।’ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्ठ 6)
(39) स्वामी जी ने सायण, उव्वट और महीधर आदि विद्वानों को भांड, धूर्त आदि अशोभनीय शब्द कहे और उनके वेदभाष्य को भ्रष्ट बताया। उन्होंने केवल अपने द्वारा रचित वेदार्थ को ही ठीक बताया है। स्वामी जी वेद को ईश्वरोक्त मानते थे न कि ऋषियों की रचना। स्वामी जी ने ईश्वरोक्त ग्रन्थ के जो लक्षण बताए हैं, क्या वे लक्षण वेद में पाए जाते हैं?
¤ वेदों का काल जानने में भी असफल रहे स्वामी जी
वेदों का सही अर्थ न जानने के कारण स्वामी दयानंद जी यह भी नहीं जान पाए कि वेदों की रचना कब और कैसे हुई?,
सही जानकारी के अभाव में उन्होंने यह कल्पना कर ली कि चारों वेद परमेश्वर की वाणी हैं। परमेश्वर ने सृष्टि के आरंभ में एक एक ऋषि के अंतःकरण में एक एक वेद का प्रकाश किया। अपनी इस कल्पना की पुष्टि में उन्हें कोई प्रमाण न मिला। तब उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और उसका अर्थ अपनी कल्पना से यह बनाया-
‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।शत.।।
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्ठ 135)
इस श्लोक में ‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा’ वेद देने की बात नहीं आई है। स्वामी जी ने अपनी कल्पना को इस श्लोक में आरोपित करके यह अर्थ निकाला है।
इस श्लोक में चैथे ऋषि अंगिरा को एक वेद मिलने की बात नहीं आई है। यह भी स्वामी जी की कल्पना है।
जो बात इस श्लोक में कही गई है। वह स्वामी जी ने बताई नहीं है। इस श्लोक में अग्नि का संबंध ऋग्वेद से, यजुर्वेद का संबंध वायु से और सामवेद का संबंध सूर्य से दर्शाया गया है। यह संबंध स्वामी जी ने अपने अनुवाद या भावार्थ में दर्शाया ही नहीं।
¤ स्वामी जी सृष्टि की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे
‘चारों वेद सृष्टि के आदि में मिले।’ स्वामी जी ने बिना किसी प्रमाण के केवल यह कल्पना ही नहीं की बल्कि उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्तिविषयः, पृष्ठ 16 पर यह भी निश्चित कर दिया कि वेदों और जगत की उत्पत्ति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष हो चुके हैं।
स्वामी जी इस काल गणना को बिल्कुल ठीक बताते हुए कहते हैं-
‘...आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 17)
‘जो वार्षिक पंचांग बनते जाते हैं इनमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 19)
यह बात सृष्टि विज्ञान के बिल्कुल विरुद्ध है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि हमारी आकाशगंगा के सबसे पुराने सितारे की उम्र 13.2 अरब वर्ष है। दूसरी आकाशगंगाओं में इससे भी ज़्यादा प्राचीन सृष्टियां मौजूद हैं। वैज्ञानिकों ने यह भी बताया है कि हमारी पृथ्वी को बने हुए लगभग 4.54 अरब वर्ष हो चुके हैं। ऐसे में सृष्टि संवत के आधार पर इस सृष्टि को एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले उत्पन्न हुआ मानना केवल स्वामी जी की कोरी कल्पना है। जिसका कोई प्रमाण नहीं है।
¤ आर्य ज्योतिषियों का फलित भी ग़लत और गणित भी ग़लत
स्वामी जी ने ज्योतिष के फलित को ग़लत और उसके गणित को सही माना है। वह ज्योतिष की काल गणना पर विश्वास करके धोखा खा गए। बाद के वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला कि जगत और मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में आर्य ज्योतिषियों की काल गणना बिल्कुल ग़लत है। स्वामी जी कह रहे हैं कि आर्यों ने एक एक क्षण का हिसाब ठीक से सुरक्षित रखा है लेकिन हक़ीक़त यह है कि आर्यों ने सृष्टि की उत्पत्ति की जो काल गणना की है, उसमें 11 अरब वर्ष से ज़्यादा की गड़बड़ है।
वास्तव में स्वामी जी को पता नहीं था कि सितारे और ग्रह कैसे बनते हैं और उन्हें बनने में कितने अरब वर्ष का काल लगता है ?, अपनी ओर से उन्होंने लंबी से लंबी कल्पना कर ली लेकिन सृष्टि की आयु उससे भी कई गुना ज़्यादा निकली और उनका मत झूठा सिद्ध हो गया।
¤ स्वामी जी मनुष्य की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे
सृष्टि संवत के आधार पर ही स्वामी जी ने मनुष्य की उत्पत्ति भी लगभग एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पूर्व मान ली। आधुनिक खोजों के बाद आज यह जानना संभव है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी की जलवायु कैसी थी और यह भी कि उस वातावरण में मनुष्य जीवित रह सकता था या नहीं ?
देखिए वैज्ञानिक तथ्यों को प्रदर्शित करता एक चित्र, जिसमें वैज्ञानिकों ने दर्शाया गया है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले धरती पर मनुष्य नहीं पाया जाता था।
¤¤प्रकाशित पुस्तक में इस स्थान पर encyclopedia की ग्राफिक दी गयी है¤¤¤
¤ वेदों की रचना के समय का निर्णय वेदों के आधार पर
वास्तव में वेद स्वयं बताते हैं कि वे कब रचे गए ?
वेदों के अध्ययन से पता चलता है कि जब मनुष्य ने वेदों को प्राप्त किया, तब असुर व दस्यु आदि वर्तमान थे और वे आर्यों से युद्ध करते रहते थे। इनका वर्णन वेदों में आया है। स्वामी जी ने मनु स्मृति के आधार पर बताया है कि
‘आर्य्यवर्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईरान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम दस्यु, म्लेच्छ और असुर है’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टमसमुल्लास, पृष्ठ 152)
अतः सिद्ध होता है कि जब ईरान तथा पश्चिमी देशों में मनुष्य निवास करने लगे, उसके बाद मनुष्यों को वेद प्राप्त हुए, उससे पहले नहीं। एक नगर को बसने में ही कई सौ वर्ष लग जाते हैं। किसी एक जगह पैदा होने के बाद मनुष्यों को इतनी दूर दूर जाने में और इतने सारे देश बसाने में कितने हज़ार वर्ष लग गए होंगे।
स्वामी जी स्वयं कहते हैं-
‘एतद्देशस्य प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।मनु.।।
सृष्टि से ले के पांच सहò वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देश में माण्डलिक अर्थात् छोटे छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव पाण्डव पर्यन्त यहां के राज्य और राजशासन में भूगोल के सब राजा और प्रजा चले थे क्योंकि यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है उसका प्रमाण है।’ सत्यार्थप्रकाश,एकादशसमुल्लास,पृ.187)
स्वामी जी के कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि जिस समय मनुष्य को वेद और मनुस्मृति मिले, उस समय सारी पृथ्वी पर बहुत से देश और राजा थे। सारी धरती पर प्रजा का पालन हो रहा था। जिस काल में यह सब हो रहा था, उसे सृष्टि का आदि कहना ग़लत है। अतः वेदों की भांति मनुस्मृति का भी सृष्टि के आदि में होने की बात कहना ग़लत है।
इससे पता चलता है कि वेद मनुष्य को सृष्टि के आदि में नहीं मिले वरन तब मिले जबकि दुनिया में बहुत से देश और बहुत सी सभ्यताएं बन चुकी थीं। उनकी भाषाएं, संस्कृतियां और मान्यताएं भी आर्यों से अलग थीं। उनके पास राजा, सेना और हथियार आदि सब कुछ था और उन्होंने यह सब उन्नति वेद के आने से पहले ही कर ली थी। वेद के दुनिया में आने से पहले ही बहुत तरह की विद्या का प्रकाश असुर आदि मनुष्यों में हो चुका था। जिनका ज़िक्र वेदों में मिलता है।
अतः स्वामी दयानंद जी का यह कहना भी ग़लत है कि
‘यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्य्यवर्त देश ही से प्रचारित हुए हैं।‘ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ 189)
सारी दुनिया में विद्या यहां से फैलती तो वेद और मनुस्मृति भी पूरी दुनिया में फैल चुके होते और संस्कृत भाषा विश्व भर में बोली जाती, जैसे कि आज अंग्रेज़ी बोली जाती है। वर्ण व्यवस्था और छूतछात भी दुनिया में फैली हुई मिलती लेकिन दुनिया के सब देशों में इन सबका कहीं पता नहीं मिलता। यहां से विद्या दुनिया में तो क्या फैलती, यहां भी न फैल पाई। वेद-उपनिषदों को दुनिया के सामने मुसलमान और ईसाई भाई लाए। दाराशिकोह ने मजमउल-बहरैन के नाम से फ़ारसी में उपनिषदों का अनुवाद करवाया। तब दुनिया ने उन्हें पढ़ा। मैक्समूलर ने दुनिया को वेदों से परिचित करवाया। उसे भी भारत में बड़ी परेशानियां झेलने और काफ़ी माल ख़र्च करने के बाद वेद मिले। स्वयं स्वामी जी को भी भारत में वेद न मिले, जर्मनी से मंगाने पड़े।
¤ बहुत अधिक उन्नति के बाद मनुष्य को वेद मिले
वेदों के अध्ययन से यह पता चलता है कि आय्र्यावत्र्त देश के मनुष्य बहुत अधिक उन्नति कर चुके थे। वे संस्कृत भाषा बोलने लगे थे। वे व्याकरण और स्वरों को जानते थे। वे काव्य को समझने लगे थे। उन्होंने रथ बनाना सीख लिया था। उन्होंने घोड़े व गाय आदि पालना सीख लिया था। उन्होंने गाय आदि का दूध निकालने व उससे घी निकालने की तकनीक विकसित कर ली थी। वे हवन करते थे। उन्होंने मुर्दों को जलाना भी शुरू कर दिया था। इसका मतलब यह है कि अग्नि की खोज, पहिये के अविष्कार और घी के निर्माण के बाद ही आर्यों ने वेदों को प्राप्त किया, उससे पहले नहीं अन्यथा वे वैदिक संस्कारों को संपन्न न कर पाते। जिनका वर्णन वेदों में मिलता है।
वेद मिलने से पहले ही आर्य क़िले व बाँध बनाना जान गए थे। उन्होंने खेती करना व व्यापार करना भी सीख लिया था। उन्होंने सोने के सिक्के बनाना सीख लिया था। उनका व्यापार मुद्रा विनिमय के स्तर तक आ पहुंचा था। वे लोग अपना राजा चुनते थे। वे हर तरह से समृद्ध नगरों में रहते थे। उन्होंने लकड़ी, पत्थर और धातुओं से हथियार बनाने और उन्हें चलाने की कला भी सीख ली थी। उनकी अपनी सेना थी। उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी थे। वे युद्ध में असुर आदि शत्रुओं को मार डालते थे। वे बीमारियों की चिकित्सा करने में प्रवीण थे। उन्हें दवाओं का अच्छा ज्ञान था। वे भौतिक व रसायन विज्ञान में प्रवीण थे। इन बातों को सनातनी और आर्य विद्वान दोनों ही मानते हैं।
स्वामी दयानंद जी के अनुसार तो वेदों में विमान और तार विद्या (टेलीग्राम) का भी वर्णन है। (देखें ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नौविमानादिविद्याविषयः, पृष्ठ 149 व तारविद्यामूलविषयः, पृष्ठ 155)
इसका अर्थ यह हुआ कि जिस समय आर्यों को वेद मिले उस समय तक वे विमान, टेलीग्राम यंत्र और बिजली बनाने के साद्दन तैयार कर चुके थे। इस तरह वेदों को प्राप्त करने वाली आर्य सभ्यता एक अति उन्नत सभ्यता के रूप में सामने आती है।
स्वामी जी के अनुसार परमेश्वर ने वेद में आर्यों की तोप और बंदूक़ों को भी स्थिर रहने का आशीर्वाद दिया है।
‘हे मनुष्यो! तुम लोग सब काल में उत्तम बल वाले हो। किन्तु तुम्हारे (आयुधा) अर्थात् आग्नेयास्त्रादि अस्त्र और (शतघ्नी) तोप (भुशुण्डी) बन्दूक, धनुषबाण और तलवार आदि शस्त्र सब स्थिर हों।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरस्तुति., पृ.114)
इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय ईश्वर ने वेद में आर्यों को अपना आशीर्वाद दिया। उस समय आर्यों की सेना के पास तोप और बंदूक़ें मौजूद थीं। इतनी उन्नति सौ दो सौ वर्ष में संभव नहीं है। इसके लिए हज़ारों वर्ष का समय चाहिए। अतः मनुष्य की उत्पत्ति के हज़ारों वर्ष बाद मनुष्य को वेद प्राप्त होना सिद्ध होता है न कि सृष्टि के आदि में। जैसा कि स्वामी जी की मान्यता है।
वेद अपना काल स्वयं ही बता रहे हैं लेकिन उसे समझने में स्वामी दयानंद जी पूरी तरह असफल रहे। वास्तव में स्वामी जी न वेदों का काल समझ पाए और न ही वास्तविक वेदार्थ। स्वामी जी वेदों का वास्तविक काल और उनका अर्थ नहीं जानते थे लेकिन फिर भी उन्होंने यह दावा किया है कि
‘यह भाष्य प्राचीन आचाय्र्यों के भाष्यों के अनुकूल बनाया जाता है। परन्तु जो रावण, उवट, सायण और महीधर आदि ने भाष्य बनाये हैं, वे सब मूलमन्त्र और ऋषिकृत व्याख्यानों से विरुद्ध हैं। मैं वैसा भाष्य नहीं बनाता।’
‘इस में कोई बात अप्रमाण व अपनी रीति से नहीं लिखी जाती।’
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, भाष्यकरणशंकासमाधान विषयः, पृष्ठ 251)
(40) स्वामी जी का दावा ग़लत था। उनके वेदार्थ में ग़लतियाँ देखने वाले वेदों को ईश्वर की वाणी कैसे मान पाएंगे?
¤ हम वेद का आदर करते हैं
हम वेद का आदर करते हैं क्योंकि उसमें हमारे मनीषी पूर्वजों का इतिहास और चिंतन सुरक्षित है। आधुनिक वैज्ञानिक खोजों ने स्वामी दयानन्द जी के वेदार्थ को ग़लत सिद्ध कर दिया है। उनकी ग़लत दार्शनिक मान्यताओं को नकारे बिना वेदों का वास्तविक अर्थ जानना संभव नहीं है।
¤ वेद का सच्चा अर्थ जानने का फल
स्वयं स्वामी जी ने भी वेद का अर्थ जानने वाले का यह लक्षण बताया है कि वह सब दुःखों से रहित हो कर मोक्ष सुख को प्राप्त होता है। देखिए-
‘(स्थाणु0) जो मनुष्य वेदों को पढ़ के उन के अर्थ नहीं जानता, वह उनके सुख को न पाकर भार उठाने वाले वृक्ष के समान है, जो कि अपने फल फूल डाली आदि को बिना गुणबोध के उठा रहे हैं। किन्तु जैसे उनके सुख को भोगने वाला कोई दूसरा भाग्यवान् मनुष्य होता है, वैसे ही पाठ के पढ़नेवाले भी परिश्रमरूप भार को तो उठाते हैं, परन्तु उनके अर्थज्ञान से आनन्दरूप फल को नहीं भोग सकते। (योऽर्थज्ञः0) और जो अर्थ का जानने वाला है, वह अधर्म से बचकर, धर्मात्मा होके, जन्म मरणरूप दुःख का त्याग करके, संपूर्ण सुख को प्राप्त होता है। क्योंकि जो ज्ञान से पवित्रात्मा होता है, वह (नाकमेति) सर्वदुःख रहित होके मोक्षसुख को प्राप्त होता है। इसी कारण वेदादि शास्त्रों को अर्थज्ञानसहित पढ़ना चाहिए।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पठनपाठनविषयः, पृष्ठ 247)
जब एक पाठक स्वामी जी को उन्हीं की बताई कसौटी पर परखकर देखता है तो वह पाता है कि
स्वामी जी को न तो संपूर्ण सुख प्राप्त हुआ,
न ही उनके सब दुख दूर हुए और
न ही उन्हें मोक्षसुख प्राप्त हुआ।
इस तरह एक सच्चे वेदज्ञानी के ये लक्षण स्वामी दयानन्द जी में नहीं मिलते। अपने ही वेदार्थ की कसौटी पर भी वह खरे नहीं उतरते।
¤ स्वामी जी की प्रार्थना क्यों पूरी नहीं हुई?
स्वामी जी ने अपना वेदभाष्य आरंभ करने से पहले परमेश्वर से इन शब्दों में प्रार्थना की थी-
‘और आपकी कृपा के सहाय से सब विघ्न हम से दूर रहें कि जिससे इस वेदभाष्य के करने का हमारा अनुष्ठान सुख से पूरा हो। इस अनुष्ठान में हमारे शरीर में आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामथ्र्य से हमको दीजिए, जिस कृपा के सामथ्र्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आपके बनाए वेद हैं उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें। सो यह वेदभाष्य आपकी कृपा से संपूर्ण हो के सब मनुष्यों का सदा उपकार करने वाला हो’
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरप्रार्थनाविषय, पृष्ठ 5)
1. ईश्वर ने स्वामी जी की यह प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
2. उनका वेदभाष्य सुख से तो क्या दुख के साथ भी पूरा नहीं हुआ।
3. इस अनुष्ठान में लगने के बाद उन्हें आरोग्य आदि भी नहीं मिला, उल्टे ईश्वर ने उन्हें खाट पकड़ा दी और उनके प्राण ले लिए।
4. वह और उनके शिष्य स्वामी जी की मान्यतानुसार वेद के यथार्थ अर्थ का सुख से विधान न कर सके।
5. ईश्वर की कृपा न होने से उनके द्वारा वेदभाष्य संपूर्ण न हुआ। जिसकी प्रार्थना स्वामी जी ने की थी।
इसका कारण स्वामी जी की मान्यताओं में ढूंढने की कोशिश की गई तो यह लिखा हुआ मिलता है-
‘देवास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्।।मनु.।।
जो दुष्टाचारी अजितेन्द्रिय पुरूड्ढ है उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास, पृ.34)
¤ वास्तव में वेद कब और कैसे बने?
वेद के बारे में स्वामी दयानन्द जी का विचार ग़लत सिद्ध हो जाने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के विषय में सनातनी आचार्यों का मत सही है कि सबसे पहले विश्वामित्र के अन्तःकरण में गायत्री छंद में एक मंत्र की स्फुरणा हुई। जिसे गायत्री मंत्र कहा जाता है। यह पहला काव्य था। विश्वामित्र ने यह काव्य सबसे पहले ब्रह्मा जी को सुनाया। जिनके निर्देशन में वह आदि पुष्कर तीर्थ में साधना कर रहे थे। उन्होंने इसमें अ,उ,म (ओं) और 3 व्याहतियाँ ‘भूर्भुवः स्वः’ जोड़ दीं। विश्वामित्र ने आदि पुष्कर तीर्थ से लौट कर यह काव्य दूसरों को सुनाया तो उन्हें यह अच्छा लगा। दूसरे विद्वानों ने भी गायत्री छंद में मंत्र बनाना सीख लिया। इस तरह ऋचा (वेदमंत्र) की रचना का आरम्भ हुआ। ऋचा रचने वाले को ऋषि कहा गया। वेद का अर्थ ज्ञान और विचार है। जिस ऋषि को जिस विषय का ज्ञान था या जो विचार किया, उसने उसी को छंद में कहा है।
गायत्री छंद में 3 पाद होते हैं और हरेक पाद में 8 अक्षर होते हैं। इस तरह तीन पाद में कुल 24 अक्षर होते हैं। यह दूसरे मंत्रों से पहले आया और इसी के आधार पर समय के साथ ऋषियों ने मात्राएं और पद बढ़ाकर नए नए छंदों का निर्माण किया। इसलिए इसे वेदमाता भी कहा जाता है।
‘‘अक्षरानुबंध के कारण ये अलग अलग छंद कैसे निर्माण हुए होंगे, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’ यह आर्ष ऋग्मंत्र। इसके अक्षर 24 और चरण तीन। सबसे पहली यह स्तुप् अर्थात् स्तुति करने वाली ऋचा। यह कहने में त्रिचरण होने से विषम है। इसमें इसी प्रकार का अष्टाक्षरी चरण जोड़ने से छंद होता है अनुष्टुप्। यह दूसरे क्रमांक से निर्माण हुआ। इसका नाम ही यह सुझाता है कि यह स्तुप् के पश्चात् आया। इसके बाद निर्माण हुआ त्रिष्टुप्। अनुष्टुप् के चार चरण होने के कारण वह कहने में सम लगता है। इसी से उसके पश्चात् जो छंद बने वे प्रायः 4 चरणों के हैं। 32 अक्षर जब एक समूची कल्पना ग्रंथित करने के लिए अपर्याप्त पाये गये। तब 11 अक्षरों का एक एक चरण, ऐसे 44 अक्षरों का एक नया छंद बनाया गया। यह तीसरा छंद है, यह इसके त्रिष्टुप्, नाम में जो ‘त्रि‘ शब्द आया है, उस पर से स्पष्ट होता है। अनुष्टुप् के चार चरणों में अष्टाक्षरी एक और चरण जोड़ें तो बनती है, पंचदा पंक्ति। इन्हीं चालीस अक्षरों का चार चरणों में विभाजन किया जावे तो होगा विराट्। इसी प्रकार से छंद बढ़ते गये और उनका विकास होता गया। गायत्री पहला छंद होते हुए भी विषमता के कारण इतना कविप्रिय नहीं हुआ। अनुष्टुप् छंद वेद वाङ्मय के पश्चात् जो संस्कृत वाङ्मय निर्माण हुआ उसमें यद्यपि आधिक्य से पाया जाता है, तथापि वैदिक छंदवाङ्मय अधिक मात्रा में त्रिष्टुप् छंद में। छंदों की यह संख्या चार चार अक्षरों से बढ़ती हुई गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप्, बृहती, विराट् या पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिजगती, ्यक्करी, अतिशक्करी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति और अतिधृति इस अंतिम 76 अक्षरों के छंद तक गई। किंतु अधिकतर रचना हुई गायत्री, त्रिष्टुप और जगती इन तीन ही छंदों में। यह बात ऊपर दी हुई तालिका से स्पष्ट ही है। ये सारे के सारे छंद इसी क्रम से निर्माण हुए होंगे। क्रम बदलने पर भी अति उपसर्ग से युक्त अति-जगती, शक्करी, अतिशक्करी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति और अतिधृति ये नाम ही इनकी निर्मिति जगती, शक्करी, अष्टि, तथा धृति के पश्चात हुई, इस बात को प्रमाणित करते हैं।’’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 13 व 14, लेखक ः प्रा.ह.रा.दिवेकर, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के लिये मोतीलाल बनारसीदास बंगलोरोड, जवाहर नगर, दिल्ली-7 द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण 1970)
इस पुस्तक में ‘प्रारम्भिक दो शब्द’ लिखते हुए जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर के कुलपति श्री सी. शा. भांडारकर लिखते हैं-
‘जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के द्वारा, ग्वालियर के एक तपे हुए संस्कृत पंडित की यह साहित्यकृति, प्रकाश में लाते हुए, मुझे अत्यंत आनंद होता है। इसके लेखक वय, विद्या तथा ज्ञान तीनों दृष्टियों से वृद्ध व्यक्ति हैं। जिन्होंने साठ वर्षों से अधिक काल तक वेदों का प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों दृष्टियों से अभ्यास किया है और आज तक भी जिनका अभ्यास चल ही रहा है। ऐसे लेखक ने इस ग्रंथ में ऋग्वेद के 1028 सूक्तों का कालक्रमानुसार दर्शन कराया है। ...लेखक के मतानुसार सारे ही ऋग्वेद की रचना महाभारत युद्ध के पूर्व साठ पीढ़ियों में हुई है।’
बहुत से ऋषियों ने बहुत से विड्ढयों का विचार किया और बहुत से मंत्रों की रचना की। इन सब मंत्रों को संकलित किया गया तो संहिता बन गई। इसीलिए वेद को संहिता भी कहा जाता है। यह काम वेद व्यास ने किया।
‘इसने गद्य, पद्य या गान यह विभाजक लक्षण न मान तत्कालीन यज्ञ-पद्धति के अनुसार अध्वर्यु के लिए उपयुक्त मंत्र-वे गद्य रूप हों या पद्य रूप-अलग निकाले, उद्गाता के लिए आवश्यक जो भाग था-वह पाठ रूप हो या गान रूप-उसे पृथक किया और शेष जो पद्य वाङ्मय तब तक निर्मित हुआ था उसे एकत्रित किया। ये ही आज की यजुर्वेद, सामवेद तथा ऋग्वेद की संहिताएं हैं। कृष्ण द्वैपायन-जिन्हें आगे चलकर इसी कारण वेद व्यास कहने लगे-के पश्चात इन संहिताओं पर नया संस्कार कोई नहीं हुआ।’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 11)
‘ये सारे सूक्त प्रधानतः देवों की स्तुति करने हेतु से ही निर्माण हुए। और इसीलिए ‘या तेनोच्यते सा देवता‘ यह लक्षण रूढ़ हुआ। ये वैदिक देव भी अनेक हैं। ...प्रथम सूर्य, अग्नि, वायु इत्यादि प्रकृतिस्थ शक्तियां ही देवता मानी गईं और उनका यजन होने लगा। बाद में मनुष्यों के ही पराक्रमी, शत्रुनाशक, लोकपालक राजा की सदृशता से देवराज इंद्र की कल्पना आई होगी। विचार वृद्धि के साथ नैतिक कल्पनाओं के आधार पर मित्र, वरूण इत्यादि देवताओं की निर्मिति हुई और उसी समय घोड़े पर चढ़ दौड़कर आने वाले दो लोकोपकारक वीर भाइयों ने ‘अश्विनौ‘ इस जुगलबंद दो देवों की कल्पना निर्माण की होगी। इस द्वन्दात्मक कल्पना का ही विकास अग्निड्ढोमौ, इंद्राग्नी, इंद्रवायू, मित्रावरूणौ इत्यादि द्वन्द्वों में दिखता है। इंद्र के साथ उसके सहायक मरूत् भी कल्पे गये और अपने कृत्यों से देवता को प्राप्त करने वाले जो ऋभु उनकी भी कल्पना आई और इन सब पर सूक्त रचना हुई। काव्यों के विषय भी बढ़ते गये और ऊपर लिखा हुआ ‘देवता लक्षण’ प्रयुक्त किया जाकर उन सारे विड्ढयों को देवत्व की प्राप्ति हुई। घोड़े, गोएं, अरण्य इत्यादि भी देवताओं में समाविष्ट किये गये। अंत में विश्वेदेव-सारे देव-जिन-जिन की हम कल्पना कर सकते हैं, उन पर भी सूक्त लिखे गये। इस देवता विकास का भी सूक्तों का कालानुक्रम निश्चित करने में उपयोग किया गया है।’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 14-15)
¤ अनुक्रमणी और मंत्र में मंत्रकर्ता ऋषियों के नाम
सूक्त के आरम्भ में एक अनुक्रमणी भी होती है। जिसे शायद वेद व्यास ने ही बनाया है। इस अनुक्रमणी में यह लिखा रहता है कि इस सूक्त का ऋषि कौन है?, देवता कौन है ? और यह किस छंद में है?
कुछ मंत्रों के अंदर भी सूक्त रचने वाले ऋषि ने अपने नाम का वर्णन किया है। जैसे कि ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 40वें सूक्त के आरम्भ में लिखा है-
ऋषि-घोड्ढा काक्षीवती, देवता-अश्विनी, छंद-जगती
इस सूक्त के 5वें मंत्र में ऋषि घोड्ढा ने अपने नाम का उच्चारण करते हुए कहा है-
‘युवां ह घोड्ढा पर्यश्विना यती राज्ञ ऊचे दुहिता पृच्छे वों नरा
भूतं में अह उत भूतमक्तवेऽवेश्वावते रथिनेशक्तमर्वते।5।
हे अश्विनी कुमारो! मैं राजकुमारी घोड्ढा सब ओर घूमती हुई तुम्हारा गुणानुवाच करती हूँ और तुम्हारा ही चिन्तन करती रहती हूँ। तुम दिन रात मेरे यहाँ निवास करते हुए रथ और अश्वों से सम्पन्न मेरे भ्राता के पुत्र को वश में रखते हो।’ (अनुवादः पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, प्रकाशकः संस्कृति संस्थान, ख्वाजा क़ुतुब नगर, बरेली, उ.प्र.)
ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 99वें सूक्त का ऋषि वभ्रो वैखानसः, देवता इन्द्र और छन्द त्रिष्टुप् है। इसके 12वें मंत्र में सूक्त बनाने वाला वभ्र भी अपने नाम का उल्लेख करते हुए कहता है-
‘हे इन्द्र! अनेक हवियाँ देने की कामना करता हुआ मैं वभ्र तुम्हारी सेवा में पैदल चलकर आया हूँ, तुम मेरा कल्याण करो तथा श्रेष्ठ अन्न, सुन्दर गृह, सब पदार्थ और बल आदि मुझे दो।’ (अनुवादः पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)
इसी मण्डल का 100वाँ सूक्त दुवस्युर्वान्दन ने बनाकर उसके अंतिम मंत्र संख्या 12 में कहा है-‘दुवस्यु ऋषियों की रस्सी का अगला भाग आपकी कृपा से ही खींचते हैं।’ (अनुवादः पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)
ऋग्वेद का यम-यमी संवाद भी यही सिद्ध करता है कि वेदमंत्रों की रचना मनुष्यों ने की है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 10वें सूक्त के ऋषि यमी वैवस्ती और यमो वैवस्वतः हैं और इस सूक्त के देवता अर्थात प्रतिपाद्य विषय भी यही दोनों हैं। ये आपस में भाई बहन हैं। इन दोनों ने आपस में जो बातचीत की है, वही इस सूक्त में वर्णित है। सूक्त के अंदर भी यम-यमी ने एक दूसरे को नाम लेकर संबोधित किया है।
¤ वेदों में नए नए मंत्र
‘इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि समय-समय पर वेदों के नए नए मंत्र बनते रहे हैं और वे पहले बने संग्रहों (संहिताओं अथवा वेदों) में मिलाए जाते रहे हैं। ख़ुद वेदों में ही इस बात के प्रमाण मिल जाते हैं, यथाः
अथा सोमस्य प्रयतीयुवम्यामिन्द्राग्नी स्तोमं जनयामि नव्यम्. -1,109,2
अर्थात हे इंद्र और अग्नि, तुम्हारे सोमप्रदानकाल में पठनीय एक नया स्तोत्र रचता हूं.
स नो नव्येभिर्वृड्ढकर्मन्नुक्थैः पुरां दर्तः पायुभिः पाहि शग्मैः -ऋग्वेद 1,130,10
अर्थात जलवर्षक और नगर विदारक इंद्र, हमारे नए मंत्र (स्तोत्र) से संतुष्ट हो कर विविध प्रकार से रक्षा और सुख देते हुए हमें प्रतिपालित करो.
तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते -ऋग्वेद 2,17,1
अर्थात हे स्तोताओ, तुम लोग अंगिरा के वंशजों की तरह नई स्तुति द्वारा इंद्र की उपासना करो.
अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया -ऋग्वेद 4,16,21
अर्थात हे हरि विशिष्ट इंद्र हम तुम्हारे लिए नए स्तोत्र बनाते हैं.
यही शब्द अविकल रूप से 4/17/21; 4/19/11; 4/20/11; 4/21/11; 4/22/11; 4/23/11 और 4/24/11 में भी मिलते हैं।’
इस तरह के और भी कई मंत्र हैं जिनका उल्लेख करते हुए प्रख्यात वेद मनीषी डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात लिखते हैं-
‘‘स्पष्ट है कि इन स्तोत्रों व मंत्रों के रचयिता साधारण मानव थे, जिन्होंने पूर्वजों द्वारा रचे गए मंत्रों के खो जाने पर या उन के अप्रभावी सिद्ध होने पर या उन्हें परिष्कृत करने या अपनी नई रचना रचने के उद्देश्य से समयसमय पर नए मंत्र रचे. अपनी मौलिकता व अपने प्रयत्नों का विशेष उल्लेख अपनी रचनाओं में कर के उन्होंने अपने को देवता विशेष के अनुग्रह को प्राप्त करने के विशिष्ट पात्र बनाना चाहा है, अन्यथा, वे ‘अपने नए रचे स्तोत्रों’-इस वाक्यांश का प्रयोग, शायद, न करते.’’ (क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म?, पृष्ठ 464 व 465, लेखकः डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’, प्रकाशक ः विश्व विजय प्रा. लि., एम-12, कनाट सरकस, नई दिल्ली)
¤ वेदों में प्राचीन व नवीन ऋषियों के मंत्र संकलित हैं
ये च ऋड्ढयो य च नूत्ना इन्द्र ब्रह्माणि जनयन्त विप्राः।
अस्मे ते सन्तु सख्या शिवानि यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।9।।
हे इन्द्रदेव! प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों से स्तुत्य होकर आपने जिस प्रकार उनका कल्याण किया, वैसे ही हम स्तोताओं का भी मित्रवत् कल्याण करें। आप कृपा करके कल्याणकारी साधनों से हम सबकी सुरक्षा करें।
(ऋग्वेद 7/22/9; अनुवादःपं. श्रीराम शर्मा आचार्य, मथुरा से प्रकाशित, सन् 2005 ई.)
‘प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों’ कहकर वेदों ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि वेदमंत्रों की रचना ऋषियों ने की और यह काम कई पीढ़ियों तक चलता रहा।
स्वामी दयानन्द जी ने वेदों को स्वतःप्रमाण माना है और वेद स्वयं को ऋषियों की रचना बता रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि वेद का यह अनुवाद एक ऐसे महापंडित ने किया है, जो बहुत वर्षों तक आर्यसमाज का प्रतिनिधित्व करते रहे लेकिन जब उन्होंने स्वयं वेद का अनुवाद किया तो उन्होंने स्वामी जी की ग़लत मान्यताओं का अनुकरण न किया।
¤ वेदमंत्रों की रचना ऋषियों ने की
तैत्तिरीय ब्राह्मण भी वेद के सत्यवचन को प्रमाणित करते हुए कहता है-
यामृषयो मन्त्रकृतो मनीषिणः
मन्त्र की रचना मनीषी ऋषियों ने की। (तै. ब्रा. 2/8/8/5)
¤ ऋषियों के इतिहास की जानकारी आवश्यक है
सच्चा वेदार्थ जानने के लिए वेदमंत्रों की रचना करने वाले ‘कवि’ ऋषियों के इतिहास की जानकारी आवश्यक है। आज भी किसी कविता का सही अर्थ जानने के लिए उसके रचने वाले कवि के जीवन की घटनाओं के बारे में जानना ज़रूरी माना जाता है। कवि जिन घटनाओं को देखता है या जो अनुभूत करता है, अपने काव्य में उन्हीं का वर्णन करता है। अमीर ख़ुसरो, अल्लामा इक़बाल और रविन्द्र नाथ टैगोर के जीवन की घटनाओं को जाने बिना उनके काव्य का अर्थ किया जाएगा तो बहुत से स्थानों पर अर्थ का अनर्थ होना निश्चित है। वेदमंत्रों में विश्वामित्र, वसिष्ठ, घोड्ढा काक्षीवती, वभ्र, दुवस्यु और यम-यमी आदि जिन कवियों के नाम आए हैं। उनके जीवन का इतिहास जाने बिना उनके काव्य का सही अर्थ जानना संभव नहीं है।
वेद की उत्पत्ति कब और कैसे हुई?, इस रहस्य को सुलझाने के लिए भी ऋषियों का इतिहास ही काम आता है। नाभिकमल पर वास करने वाले ब्रह्मा जी और विश्वामित्र के पुरातन इतिहास को जाने बिना इसे हल करना संभव नहीं है। स्वामी जी ने वेदों में इतिहास न मानकर उनकी उत्पत्ति तक पहुंचने का एक मार्ग बंद ही कर दिया है।
स्वामी दयानन्द जी को इन ऋषियों के प्राचीन इतिहास के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी न थी। उनके द्वारा वेदार्थ में ग़लती करने का यह एक बड़ा कारण है।
¤ राजाओं के इतिहास की जानकारी भी ग़लत
स्वामी जी को ऋषियों के प्राचीन इतिहास की तो क्या आर्य राजाओं के नवीन इतिहास की भी सही जानकारी नहीं थी। उन्होंने सुल्तान शहाबुद्दीन ग़ौरी का राजा यशपाल से लड़कर दिल्ली पर राज्य करना बताया है और पृथ्वीराज चैहान के राज्य को इस युद्ध से 74 वर्ष पहले ही समाप्त दिखाया है। देखिए उनकी बनाई तालिका और उनकी टिप्पणी-
आर्य राजा वर्ष मास दिन
1 पृथिवीराज 12 -2 -19
2 अभयपाल 14 -5 -17
3 दुर्जनपाल -11 -4 -14
4 उदयपाल -11 -7 -3
5 यशपाल -36 -4 -27
‘राजा यशपाल के ऊपर सुल्तान शाहबुद्दीन गौरी गढ़ गजनी से चढ़ाई करके आया और राजा यशपाल को प्रयाग के किले में संवत् 1249 साल में पकड़ कर कैद किया। पश्चात् ‘इन्द्रप्रस्थ’ अर्थात दिल्ली का राज्य आप (सुल्तान शाहबुद्दीन) करने लगा।’ (देखें सत्यार्थप्रकाश, एकादशमसमुल्लास, पृ.274)
(41) क्या स्वामी जी द्वारा दी गई इस जानकारी को सही माना जा सकता है?
हक़ीक़त यह है कि शाहबुद्दीन ग़ौरी 1149 ई. में पैदा हुआ और 1205 ई. में उसकी मृत्यु हुई। पृथ्वीराज चैहान 1149 ई.-1192 ई. में तराइन की दूसरी जंग में शाहबुद्दीन ग़ौरी से हार कर क़ैद हुआ और 1192 ई. में क़त्ल किया गया।
¤ सब्ज़ियां खाने से जीव को पीड़ा नहीं होती?
इतिहास की तरह जीव विज्ञान के विषय में स्वामी जी की मान्यताएं ठीक नहीं हैं। वह कहते हैं-
‘...हरित ‘शाक के खाने में जीव का मारना उनको पीड़ा पहुंचनी क्योंकर मानते हो? भला जब तुमको पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दिखती और जो दिखती तो हमको दिखलाओ।’ ( देखें सत्यार्थप्रकाश, द्वादशमसमुल्लास, पृष्ठ 369)
(42) आज पहली क्लास का बच्चा भी जानता है कि पेड़-पौधे जीवित वस्तुओं ;स्पअपदह जीपदहेद्ध में आते हैं। सब्ज़ी खाने से उन पर निवास करने वाले जीव भी मरते हैं। यह एक सच्चाई है। खाने के लिए गाजर-मूली को ज़मीन से खोद कर निकाला जाता है। तब वे भी मर जाती हैं और उन्हें पीड़ा भी होती है। इस वैज्ञानिक सत्य को झुठलाना ज्ञान कहा जायेगा अथवा अज्ञान?
दूसरों पर ऐतराज़ करने की जल्दी में स्वामी जी अपनी मान्यता भी भूल गए कि
‘स्वामी जी ने मनुष्य, पशु और वनस्पति आदि में जीव एक ही माना है।’ ( देखें सत्यार्थप्रकाश, नवम., पृ.170)
यह बात मान ली जाए तो मूली काटना भी आदमी की गर्दन काटने के बराबर का ही जुर्म ठहरता है और दोनों कामों पर एक ही धारा लगनी चाहिए और एक ही सज़ा मिलनी चाहिए। पेड़-पौधों पर अनगिनत सूक्ष्म जीवाणु भी वास करते हैं। सब्ज़ियां खाने से वे भी मरते हैं। मक्खी और मच्छर के क़त्ल पर भी वही सज़ा मिलने लगे जो कि आदमी को क़त्ल करने पर मिलती है तो आर्य समाजी भाई स्वयं ही कहने लगेंगे कि आवागमन नहीं होता।
(43) अगर मनुष्य, पशु और सब्ज़ी में जीव एक ही है तो फिर उन सबके जीवन का अंत करना बराबर का अपराध क्यों नहीं माना जाता?
(44) क्या ऐसा करके मनुष्य समाज एक मिनट के लिए भी ज़िन्दा रह सकता है?
आवागमन की मान्यता के अनुसार जो सब्ज़ियाँ और छोटे बड़े जीव अब नज़र आ रहे हैं, ये सब पहले कभी मनुष्य हुआ करते थे। वे मनुष्य ही मर कर अपने पाप भुगतने के लिए इन योनियों में पैदा हो गए हैं। केवल रूप रंग बदला है, इनमें आत्मा वही माननी पड़ेगी। ऐसे में यह डर बना रहता है कि जिस आलू को हम छील रहे हैं, कहीं यह हमारे माता-पिता ही न हों?
हमारे माता पिता न भी हों तब भी वे किसी न किसी मनुष्य के माता पिता या बच्चे तो हैं ही, यह निश्चित है। आवागमन को माना जाए तो शाकाहारी भी आदमख़ोर ठहरते हैं। इस अपराध बोध से आदमी तभी बच सकता है, जबकि वह आवागमन को असत्य मान ले।
¤ शाकाहार श्रेष्ठ क्यों माना जाए?
आवागमन की मान्यता शाकाहार के श्रेष्ठ और सात्विक प्रकृति का होने की भी जड़ काट देती है।
‘(प्रश्न) मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक सा है वा भिन्न-भिन्न जाति के?
(उत्तर) जीव एक से हैं परन्तु पाप पुण्य के योग से मलिन और पवित्र होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.170)
‘स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।।
जो अत्यन्त तमोगुणी हैं वे स्थावर, वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं। (मनुस्मृति का श्लोक, सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.174)
‘शरीरजैः कर्मदोड्ढैर्याति स्थावरां नरः।
जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म... (मनुस्मृति का श्लोक, सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.172)
स्वामी जी के मतानुसार मनुष्य, पशु और पेड़-पौधों में एक ही जीव अपने पाप-पुण्य के कारण जन्म लेता रहता है। जो मनुष्य तमोगुणी होते हैं वे वनस्पति (सब्ज़ी), मछली और हिरन आदि बनकर पैदा होते हैं। जो लोग चोरी, व्यभिचार और हत्या जैसे जघन्य पाप करते हैं। वे आलू-गोभी बन जाते हैं। आलू, टमाटर, केले और नारियल आदि की यह देह मनुष्यों को उनके पाप की मलिनता के कारण प्राप्त होती है। चोरी, व्यभिचार और हत्या जैसे मलिन कर्मों के परिणामस्वरूप उत्पन्न देह को खाने के बाद वह खाने वाले के ्यरीर का अंग बनेगी और उसे भी मलिन बना देगी। रोज़ रोज़ इनका खाना मलिनता को बढ़ाता रहेगा और वे खाने वाले के मन में भी चोरी, व्यभिचार और हत्या की भावना जगा सकती हैं। कहावत ‘जैसा खाय अन्न वैसा हो जाय मन’ मशहूर ही है।
(45) सवाल यह उठता है कि किसी तमोगुणी जीव को आलू, गोभी, टमाटर और केले आदि की जो देह उसके पाप की मलिनता के कारण मिली है। उसे खाकर मनुष्य की तामसिक प्रवृत्ति पुष्ट होना तो समझ में आता है लेकिन सात्विक प्रवृत्ति को कैसे बल मिल सकता है?
(46) मनुस्मृति ने लौकी, कद्दू, मछली और हिरन, सबको एक ही श्रेणी ‘अत्यन्त तमोगुणी’ में रख दिया है। तब एक ही श्रेणी के एक जीव सब्ज़ी को खाकर उसे खाने वाले ख़ुद को पवित्र और श्रेष्ठ आहार ग्रहण करने वाला क्यों समझते हैं?
मछली और हिरन को मारने में उन्हें कष्ट होने की बात कही जा सकती है लेकिन वह तो पेड़ पौधों को भी होता है। मछली और हिरन आदि के कष्ट को तो कम किया जा सकता है लेकिन गाजर और चुक़न्दर के कष्ट को कम करने का कोई उपाय भी नहीं है।
(47) पशु-पक्षी को जब खाया जाता है तब उनमें प्राण और चेतना नहीं होती लेकिन जब आदमी गाजर खा रहा होता है तब वे जीवित होती हैं। गाजर और चुक़न्दर का रस वास्तव में उनके शरीर का रक्त है, जिसे शाकाहारी बड़े शौक़ से पीते हैं और ऐसा करके भी वे ख़ुद को पवित्र और श्रेष्ठ क्यों समझते रहते हैं?
¤ वेदपाठी सन्यासी इन्जीनियर से नीचे और दैत्य के बराबर कैसे?
‘तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गुणाः। नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्विकी गतिः।। (सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.173)
जो तपस्वी, यति, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलाने वाले, ज्योतिड्ढी और दैत्य अर्थात् देहपोड्ढक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्वगुण के कर्म का फल जानो।
(48) वेदपाठी, सन्यासी और तपस्वी को हवाई जहाज़ के पायलट और दैत्य के साथ एक ही श्रेणी में रखना कैसे न्याय हो सकता है?
(49) क्या तपस्वी, यति, सन्यासी और वेदपाठी को पायलट और दैत्य के समकक्ष मानना उनका पदावनति और अपमान नहीं है?
(50) प्रथम सत्वगुण के कर्म करने के बाद भी आदमी मरने के बाद दैत्य बनकर पैदा हुआ तो उसे क्या फ़ायदा हुआ?
सत्वगुणी कर्म करके दैत्य बनने वाले से अच्छे तो वे अत्यन्त तमोगुणी व्यक्ति रहे जो किसी की हत्या करके या चोरी और व्यभिचार करके पीपल, तुलसी आदि वृक्ष या गाय आदि पशु बन गये और आदर पाते रहे।
प्रथम सत्वगुण से ऊँचा दर्जा मध्यम सत्वगुण का है। मनुस्मृति के अनुसार मध्यम सत्वगुण के कर्म करने वाला विद्युत विद्या का जानकार अर्थात इलैक्ट्रिकल इन्जीनियर बनकर पैदा होता है। इससे ऊँचा दर्जा उत्तम सत्वगुण के कर्म करने वालों को मिलता है। उन्हें विमानादि यानों को बनाने वाले का जन्म मिलता है। (देखिए सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.172)
यहाँ भी तपस्वी, यति, सन्यासी और वेदपाठी हवाई जहाज़ बनाने वाले इन्जीनियर से दो दर्जे नीचे रह गए। इनके बराबर केवल ब्रह्मा जैसे सब वेदों के वेत्ता को रखा गया है। हवाई जहाज़ बनाने वाले इन्जीनियर को तो सब वेदों के ज्ञानी ब्रह्मा जी जैसे विद्वान के बराबर रख दिया और वेदपाठी, सन्यासी, यति और तपस्वियों को उससे दो दर्जे नीचे रखा। उन्हें बिजली मैकेनिक या इन्जीनियर से भी नीचे रखा गया। इससे भी बढ़कर यह कि उन्हें पायलट और दैत्यों की श्रेणी में रख दिया गया।
(51) आवागमन को मानने वाले वेदपाठी सन्यासियों ने जीवन भर की तपस्या के बाद पाया भी तो क्या, एक दैत्य के बराबर दर्जा पाया?
(52) चोरी, व्यभिचार और हत्या करने वाले पेड़ बन गए तो उनका क्या बिगड़ गया? वे तो बाल-बच्चों को पालने और ब्याहने की चिंता से और मुक्त हो गए। आवागमन की मान्यता से पापियों को फ़ायदा और सत्कर्मियों को नुक्सान होता हुआ साफ़ दिख रहा है। वे पीपल, बरगद और तुलसी आदि वृक्ष बन गए तो कुछ जगहों पर लोग उनकी पूजा करते हुए, उन्हें सम्मान देते हुए भी मिल जाएंगे।
¤ आवागमनः समाज का पतन
हमें जानना चाहिए कि आज वेदपाठ करना पिछले जन्म के कर्मों का फल नहीं है। स्वयं स्वामी जी ने वेद का प्रचार करने के लिए जगह जगह पाठशालाएं खोलीं और आर्य समाज मन्दिर बनवाए। इससे वेदपाठ करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी भी हुई। अगर वेदपाठी होना पिछले जन्म के कर्मों का फल होता तो स्वामी जी के प्रयास से वेदपाठियों की संख्या न बढ़ती।
यही बात बिजली और हवाई जहाज़ बनाने वालों की है। सत्वगुण के कर्म करने से यह योग्यता पैदा हुआ करती तो आज दुनिया में आर्य समाजी सबसे ज़्यादा बिजली और हवाई जहाज़ बना रहे होते। हक़ीक़त इसके खि़लाफ़ है। बिजली और हवाई जहाज़ का सबसे ज़्यादा प्रोडक्शन वे कर रहे हैं जो स्वामी जी के अनुसार तमोगुणी हैं।
सवारी और युद्ध के विमान आज भी भारत में नहीं बनते। भारतीय इन्हें उन विदेशियों से ख़रीदते हैं जो आवागमन में विश्वास नहीं रखते। योग्यता और कला कौशल का गुण इसी जन्म के अभ्यास से विकसित होता है। इसे पिछले जन्म के कर्म का फल मानना लोगों को ग़लत जानकारी परोसना है। जिसके कारण समाज के लोग आवश्यक पुरूड्ढार्थ नहीं करते और वे दूसरों से पिछड़ कर उनके अधीन हो जाते हैं। ग़लत विचारों को त्यागे बिना राजनैतिक प्रभुत्व पाना और वैज्ञानिक उन्नति करना संभव नहीं है।
¤ आवागमन का त्याग ज़रूरी है देश की सीमाओं की रक्षा के लिए
स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.174 पर बताया है कि जो अत्यन्त रजोगुणी कर्म करते हैं वे मरने के बाद शस्त्रधारी भृत्य अर्थात सैनिक बनकर पैदा होते हैं। यह एक ग़लत बात है। इस तरह की बातें करना देश की सीमाओं को ख़तरे में डालना है। विदेशी हमलावरों से हारने का एक कारण ऐसी मान्यताएं भी थीं।
किसी का सैनिक बनना उसके पूर्वजन्म के कर्म का फल नहीं होता। हरेक राज्य अपनी अपनी सीमा के क्षेत्रफल और सेना पर ख़र्च करने की क्षमता के अनुसार ही सैनिक तैयार करता है। जिस राज्य को जितने सैनिक चाहिए होते हैं। वह उनकी भर्ती करके उन्हें प्रशिक्षण देता है और वे सैनिक बन जाते हैं। युद्धकाल में ज़्यादा सैनिकों की ज़रूरत पड़ती है तो राज्य ज़्यादा लोगों को भर्ती कर लेता है। जिन दांभिक पुरूषों को स्वामी जी ने तमोगुणी (सत्यार्थ.,पृ.174) माना है, वे भी सेना में भर्ती होकर लड़ते हैं। पायलट और बिजली के जानकार भी मैदान में लड़ते हैं। जिन्हें स्वामी जी ने सत्वगुणी माना है। सत, रज, तम तीनों गुणों के मालिक सेना में इकठ्ठे मिलेंगे और सेना से रिटायर होकर वे सब फिर अलग अलग काम करते हैं। कोई खेती करता है, कोई व्यापार करता है, कोई अध्यापक बन जाता है और कोई डाकू-लुटेरा भी बन जाता है।
Unicode Book Part: one-Two-and-Last
डा. अनवर जमाल की पुस्तक "'स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण पर आधारित ब्लाग, अन्य लेख पढने के लिए देखें vedquran.blogspot.in
Wednesday, April 8, 2015
swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition-Part-2
¤ स्वामी जी डरपोक और लालची न थे ---Link:-Unicode Book Part: one----three-----and---Last
स्वामी जी ने बुद्धि और तर्क से काम लिया। उन्होंने आर्यजाति के गौरव की वापसी के लिए मूर्तिपूजा का खंडन किया। उन्होंने वेद का प्रचार किया। वेद को समझने के लिए उन्होंने अपनी मान्यताएं स्वयं स्थापित कीं। यह सब करना आसान काम नहीं था लेकिन उन्होंने किया। उनमें साहस कूट-कूट कर भरा था। उन्हें मौत की धमकियां दी गईं और उन पर कई बार क़ातिलाना हमले किए गए लेकिन वह इन से कभी नहीं डरे। उनमें रुपये-पैसे का लोभ नहीं था। उनमें इस तरह की कई ख़ूबियां थीं। जिनकी प्रशंसा उनके मिलने वालों ने की है। उन्होंने कहा कि सबको वेद पढ़ने का अधिकार है। सब वेद पढ़ें और वेदानुकूल आचरण करें। जो ऐसा न करेगा, वह ग़ोता खाता रहेगा। स्वामी जी का निमन्त्रण सबके लिए आम है।
¤ हमारा मक़सद
स्वामी जी अपना काम करके जा चुके हैं। उनके निमन्त्रण पर विचार करने का काम अब हमारा है। इसके लिए हमें पूर्वाग्रह से मुक्त होकर सोचना होगा। हम उनके अनुयायी हों या न हों लेकिन वेद हमारे पूर्वजों की विरासत है। यह हम सबके लिए है। अगर स्वामी दयानन्द जी ने वास्तव में सच्चा वेदार्थ जान लिया है तो उन्होंने हम पर बड़ा उपकार किया है। अब हम उनके माध्यम से वेदों को आसानी से समझ सकते हैं और अगर वह वेदों का सही अर्थ नहीं जान पाए थे और वह अपने अनुमान से वैसे ही कोई अर्थ बताकर चले गए हैं तो उस भ्रम के कारण लोगों को लोक-परलोक में नुक्सान पहुंचना भी तय है।
स्वामी जी के साहित्य और उनकी जीवनी के अध्ययन से हमने यही जानने की कोशिश की है कि स्वामी दयानन्द जी ने क्या खोजा और क्या पाया?
स्वामी जी से असहमत होने का अर्थ उनका निरादर करना हरगिज़ नहीं है। इसीलिए जहां कहीं उनके बारे में कोई राय दी गई है तो उनके लिए उन्हीं के शब्दों का प्रयोग किया गया हैे। इनसे भी किसी को कष्ट हो तो हम क्षमा चाहते हैं। इसका अर्थ यही है कि ये शब्द ही कष्टदायक हैं। दूसरों को भी इन शब्दों से दुख होता है। यह ख़याल करके इन्हें क्षमा-याचना सहित स्वामी जी के साहित्य से हटा दिया जाए।
¤ सच्चा योगी गुरू न मिला, नशे की लत पड़ी
मूलशंकर ने सच्चे योगी गुरू की खोज शुरू की, जो उसे ‘सच्चे शिव‘ के दर्शन करा सके। इस खोज में वह पहले ‘शुद्धचैतन्य’ और फिर ‘दयानन्द’ बन गये लेकिन उन्हें पूरे भारत में ऐसा कोई योगी गुरू नहीं मिला जो उन्हें ‘सच्चे शिव’ के दर्शन करा देता। इसके विपरीत स्वामी जी को चांडालगढ़ स्थित दुर्गाकुण्ड के मन्दिर में प्रवासकाल के दौरान नशे की लत और पड़ गई। वह स्वयं कहते हैं-
‘दुर्भाग्य से इस स्थान पर मुझे एक बड़ा व्यसन लग गया अर्थात् मुझको भंग सेवन करने का अभ्यास पड़ गया और प्रायः उसके प्रभाव से मैं मूर्च्छित हो जाया करता था।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित्र, पृ.50, षष्टम् संस्करण, मूल्यः250 रुपये, प्रकाशकः आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट 455 खारी बावली, दिल्ली 110006, दूरभाड्ढः 23958360)
योगी गुरू की खोज में असफल होने के बाद वह मथुरा में विरजानन्द स्वामी जी से मिले। विरजानन्द स्वामी जी कहते थे कि ‘तीन वर्ष में व्याकरण आता है’। स्वामी दयानन्द जी ने उनसे व्याकरण भी पूरे तीन साल नहीं पढ़ा। यहां रहने के दौरान भी स्वामी जी को सत्य-असत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाया।
¤ विद्या पाकर स्वामी जी ने शैव की स्थापना की?
मथुरा के बाद वह 2 वर्ष आगरा में रहे। इसके बाद वह ग्वालियर और करौली पहुंचे और फिर वह जयपुर पहुंच गए। इतनी लंबी यात्रा करने और इतनी विद्या पाने के बाद भी स्वामी जी को धर्म और सत्य का कुछ पता न चल पाया था। स्वामी जी कहते हैं-
‘वहां से आगे जयपुर को गया-वहां एक हरिश्चन्द्र विद्वान पंडित था। वहां मैंने प्रथम वैष्णवमत का खंडन करके शैवमत की स्थापना की। जयपुर के राजा महाराजा रामसिंह ने भी शैवमत को ग्रहण किया। इससे शैवमत का विस्तार हुआ और सहस्रों मालाएं मैंने अपने हाथ से दीं। वहां शैवमत इतना पक्का हुआ कि हाथी, घोड़े आदि सबके गले में भी रूद्राक्ष की मालाएं पड़ गईं।’ (म.द.स. का जी.च., पृ.53-54)
विदा होते समय बिरजानन्द स्वामी जी द्वारा उन्हें आर्ष ग्रन्थों के प्रचार की आज्ञा देना बताया जाता है, उसका क्या हुआ?
¤ स्वामी जी की राय शैवमत के बारे में
उन्हीं के शब्दों में देखिए-
‘(प्रश्न) शैव मत वाले तो अच्छे होते हैं?
(उत्तर) अच्छे कहां होते हैं? ‘जैसा प्रेतनाथ वैसा भूतनाथ’ जैसे वाममार्गी मन्त्रोपदेशादि से उन का धन हरते हैं वैसे शैव भी ‘ओं नमः शिवाय’ इत्यादि पवक्षरादि मन्त्रों का उपदेश करते, रूद्राक्ष भस्म धारण करते, मट्टी के और पाड्ढाणादि के लिंग बनाकर पूजते हैं और हर-हर बं बं और बकरे के शब्द के समान बड़ बड़ बड़ मुख से शब्द करते हैं। (सत्यार्थ प्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ. 287, 72वाँ संस्करण दिसम्बर 2009)
स्वामी जी ने स्वयं भी एक शैव परिवार में जन्म लिया था। बिरजानन्द स्वामी जी से व्याकरण पढ़ने के बाद भी उन्हें यह पता नहीं चला था कि ‘मैं कौन हूँ’, जो कि उनके द्वारा बिरजानन्द जी से पूछना बताया जाता है।
¤ स्वामी जी के समय में हिन्दू समाज की दशा
इस दौरान स्वामी जी ने मथुरा, काशी और वृन्दावन आदि तीर्थों की यात्रा की। जहां उन्होंने खुद प्रत्येक स्तर पर जो पाखण्ड और भ्रष्टाचार अपनी आंखों से देखा, उसे उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में बयान किया है। वह हरिद्वार के कुम्भ मेले में भी गए। वहां उन्होंने देखा-
‘संन्यासी जिनका काम जगत का सुधार करना था वह गिरी, पुरी, भारती, अरण्य, पर्वत, आश्रम, सरस्वती, सागर, तीर्थ, गुसांई-इन दस भागों में विभक्त होकर परस्पर गृहयुद्ध में फंसे हुए थे। ...राजा महाराजा आंख के अंधे गांठ के पूरे, इसी प्रकार के संड-मुसंडों के चेले और अनुयायी, तन, मन, धन, गुसांई और गुरू जी को अर्पण करने वाले, चाटुकार और भीरू दरबारियों के संसर्ग में दिन रात रहकर धर्म और संसार से बेसुध, अफ़ीम के गोले चढ़ाने में निपुण साधुओं का अविद्यान्धकार में फंसना और गृहस्थियों का विनाश, राजाओं को मूर्खों से संगति और विद्वानों के प्रति उपेक्षा; विद्वानों का मौनधारण और सत्य का प्रकाश न करना और इस पर एक सत्यप्रिय तथा सत्यवादी की निन्दा, यह सब देखकर स्वामी जी का चित्त अत्यन्त उत्तेजित हुआ, हृदय भर आया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 83)
स्वामी दयानन्द जी वास्तव में अपने निश्चय के पक्के और बड़े जीवट के स्वामी थे। उनके प्रयास से भारतीय समाज में वेद सामने आए और मूर्तिपूजा को एक बुराई के रूप में देखा जाने लगा। उन्होंने हिन्दू राजाओं को वेश्यागमन से रोका। उन्होंने सामान्य हिन्दुओं को भी नशा, व्यभिचार, समलैंगिकता व दूसरी बुराईयाँ छोड़ने का उपदेश दिया। इन सब उपदेशों के माध्यम से उन्होंने वर्णाश्रम धर्म को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया।
¤ मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिये?
एक इन्सान जब होश संभालता है तो ऐसे बहुत से प्रश्न उसके मन को बेचैन करते हैं। जब वह इस सृष्टि पर नज़र डालता है और पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं, फसलों और मौसमों को, धरती की सुंदरता और अंतरिक्ष की विशालता को, सूर्य से लेकर परमाणु तक को, उनकी संरचना, संतुलन और उपयोगिता को देखता है तो सहज ही कुछ प्रश्न पैदा होते हैं कि यह सब कुछ खुद से है या इसका कोई बनाने वाला और चलाने वाला है? अगर यह सब कुछ खुद से ही है तो इतना संतुलन और इतनी नियमबद्धता, व्यवस्था और उपयोगिता इन बुद्धि और चेतना से खाली निर्जीव पदार्थो में आई कैसे? और अगर कैसे भी इत्तेफाक़ से आ गई तो फिर निरन्तर कैसे बनी हुई है? और अगर ये सब ख़ुद से नहीं हैं बल्कि किसी ज्ञानवान हस्ती ने इस सृष्टि की रचना की है तो उसने ऐसा किस उद्देश्य से किया है? उसने मनुष्य को क्यों पैदा किया? और वह उससे क्या चाहता है? वह कौन सा मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी पैदाईश के उद्देश्य को पाने में सफल हो सकता है? आदि आदि।
मनुष्य अपने परिवार वालों को दुख उठाकर मरते हुए देखता है तो उसके दिल में मौत का डर बैठ जाता है। तब वह सोचने लगता है कि मौत से कैसे बचा जाए या कम से कम मौत के कष्ट से बचने का ही उपाय ढूंढ लिया जाए।
¤ स्वामी जी के घर छोड़ने का उद्देश्य था मृत्यु समय के दुःखों से बचना
स्वामी दयानन्द जी ने भी अपनी 14 वर्षीय बहन को विशूचिका (हैज़ा) से मरते हुए देखा। वह स्वयं बताते हैं-
‘सारांश यह है कि उसी समय पूर्ण विचार कर लिया कि जिस प्रकार हो सके मुक्ति प्राप्त करूं जिसके द्वारा मृत्यु समय के समस्त दुःखों से बचूं।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 39)
इस घटना के लगभग 3 वर्ष बाद उनके चाचा की मृत्यु भी विशूचिका से ही हो गई। स्वामी जी बताते हैं-
‘इसके पश्चात मुझे ऐसा वैराग्य हुआ कि संसार कुछ भी नहीं किन्तु यह बात माता-पिता जी से तो नहीं कही किन्तु अपने मित्रों और विद्वान पंडितों से पूछने लगा कि अमर होने का कोई उपाय मुझे बताओ। उन्होंने योगाभ्यास करने के लिए कहा। तब मेरे जी में आया कि अब घर छोड़कर कहीं चला जाऊं।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 40)
...और सचमुच वह एक दिन घर छोड़कर निकल खड़े हुए।
¤ स्वामी जी बच न पाए मृत्यु समय के दुःखों से
सारे जप-तप, यम-नियम और योगाभ्यास के बावजूद वह न तो अमर हो सके और न ही मुक्ति पा सके और न ही मृत्यु समय के भयानक दुःखोंे से बच सके, जिसके लिए वह घर से निकले थे। स्वामी जी को मरते समय अपनी बहन और अपने चाचा की अपेक्षा कई गुना अधिक दुःख भोगना पड़ा।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 821 पर लिखा है-
‘फिर उनको तीस-तीस चालीस-चालीस दस्त नित्य आया करते थे। जिससे वह दिन प्रतिदिन निर्बल होते गए।’
उन्हें पेट-दर्द भी होता था। उनका मूत्र कोयले के समान निकलता था। उनकी मुंह और जीभ पक गए थे। गले में कफ़ भी बहुत हो गया था। उनका बोलना भी बंद हो गया था। डाक्टर की बात का जवाब भी संकेत से देते थे। उनकी यह हालत 1 महीने से ज़्यादा रही।
‘एक दिन मृत्यु के समीप एक आर्य ने पूछा कि महाराज। आपका गला बैठ जाने का क्या कारण है तो मुख खोलकर बतलाया कि यहां से नाभि तक सब पक गया है और धीमे स्वर से कहा कि नाभि तक छाले पड़ गए हैं।’
(महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 835)
स्वामी जी का दोनों समय हवन भी छूट गया था। स्वामी जी को शौच के लिए बैठाने में भी चार आदमियों को लगना पड़ता था। वह स्वयं करवट तक भी न बदल पाते थे। उन्हें करवट भी दो-चार आदमी दिलाया करते थे। ये सेवक स्वामी जी का कहना कभी मान लेते थे और कभी टाल देते थे। मृत्यु से एक दिन पहले स्वामी जी ने उनसे नाई को 5 रुपये देने के लिए कहा लेकिन उन्होंने उसे 1 रुपया दिया। जिसकी शिकायत नाई ने स्वामी जी से की। स्वामी जी ने मृत्यु के दिन जब क्षौरकर्म करवाया तो स्नान करने की इच्छा की लेकिन उनके सेवकों ने स्वामी जी को नहीं नहलाया। इस तरह उनकी अंतिम इच्छा भी पूरी न हो पाई। उन्हें गीले कपड़े से सिर पोंछकर रह जाना पड़ा। इसी हाल में वह चल बसे।
¤ मक़सद और तरीक़ा, दोनों ग़लत
वास्तव में उनका मक़सद (उद्देश्य) और तरीक़ा दोनों ही ग़लत थे। दुनिया में अमर होने की इच्छा करना भी ग़लत है और इस मक़सद के लिए घर छोड़ना भी ग़लत है। दुनिया में अमर होना या दुःख से बच पाना प्राकृतिक नियम और सृष्टि विज्ञान के विरूद्ध है।
ज़िंदगी का सच्चा मक़सद और उसे पाने का सही तरीक़ा केवल सच्चा गुरू ही बता सकता है। इसीलिए ज्ञान देने वाला एक गुरू वास्तव में ज़मीन और आसमान के सारे ख़जानों से भी बढ़कर है। उसका अनुसरण करके ही मनुष्य अपने लक्ष्य को पाकर सफल हो सकता है। इस तरह एक सच्चे और ज्ञानी गुरू की तलाश हरेक मनुष्य की बुनियादी और सबसे बड़ी ज़रूरत है। लेकिन जैसा कि इस दुनिया का क़ायदा है कि हर असली चीज़ की नक़ल भी यहाँ मौजूद है। इसलिए जब कोई मनुष्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीजों तक की सही जानकारी नहीं होती लेकिन वे ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।
¤ सीढ़ी तोड़ने के कारण स्वामी जी को न परमेश्वर मिला और न सुयोग्य शिष्य
माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- ‘ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ 216 30वां संस्करण प्रकाशक : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली 6)
माता-पिता को छोड़कर तो वह खुद ही निकल गए थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वह ख़ुद दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया। इस तरह उन्होंने अतिथि सेवा का मौक़ा भी खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन वह उनके नियम भंग कर देते थे तब आचार्य इतने ज़ोर से उन्हें डण्डा मारता था कि उसका निशान उनके शरीर पर हमेशा के लिए छप जाता था। एक बार तो बिरजानन्द जी ने अपनी अवज्ञा के कारण अपनी पाठशाला से उनका नाम ही काट दिया था। इसी सीढ़ी के टूटे होने के कारण न उन्हें परमेश्वर मिला, न गुरू का प्यार मिला और न ही कोई अच्छा शिष्य मिल पाया। वह स्वयं कहा करते थे-
‘मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्य नहीं मिलेगा। इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121, प्रथम संस्करण जुलाई 1994, मूल्य: 20 रुपये, लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार, गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर उत्तराखण्ड में अध्यापक, प्रकाशक: मधुर प्रकाशन 2804 गली आर्य समाज, बाज़ार सीताराम नई दिल्ली 110006, दूरभाष : 3268231, 7513206)
अपनी सीढ़ी तोड़ डालने वालों को नादान समझना चाहिए, गुरु नहीं। भारत को विश्वगुरु के महान पद से गिराने में ऐसे अज्ञानियों का बहुत बड़ा हाथ है, जो पहले अपनी सीढ़ी तोड़ बैठे और फिर जीवन भर भटकते रहे और दूसरों को भी भटकाते रहे। स्वामी जी जैसे लोगों के जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि लोगों को अपनी सीढ़ी की रक्षा करनी चाहिए अर्थात अपने माता-पिता और अपने आश्रितों की सेवा करते रहना चाहिए। जो कि स्वामी जी नहीं कर पाए।
¤ विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले
आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने भी उनके विश्वस्त सेवकों के विषय में यही बताया है-
‘विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-स्वामी जी के पास जितने मनुष्य भरोसे के थे, सब निकम्मे निकले।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
‘स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (हवाला उपरोक्त)
स्वामी जी को विश्वस्त और कर्मठ सेवक न मिल पाने का कारण भी माता-पिता के विश्वास को भंग करना है।
¤ स्वामी जी के विषय में उनके पिताजी की राय
स्वामी जी ने अपने द्वारा लिखे गए जीवन चरित्र में बताया है कि जब वह घर से चुपके से निकल आए थे तो उनके पिता जी ने उन्हें बहुत तलाश किया और आखि़रकार उन्होंने स्वामी जी को सिद्धपुर के मेले में पकड़ लिया था। स्वामी जी के शब्दों में-
‘एक दिन उस शिवालय में जहां मैं उतरा था प्रातःकाल एकाएक मेरे बाप और चार सिपाही मेरे सम्मुख आ खड़े हुए। उस समय वह ऐसे क्रोध में भरे हुए थे कि मेरी आंख उनकी ओर नहीं होती थी। जो उनके जी में आया सो कहा और मुझे धिक्कारा कि तूने सदैव को हमारे कुल को दूड्ढित किया और तू हमारे कुल को कलंक लगाने वाला उत्पन्न हुआ।
मेरे मन में आतंक बैठ गया कि कदाचित् मेरी कुछ दुदर्शा करेंगे। इस डर से मैंने उठकर उनके पांव पकड़ लिये। मेरा पिता मुझ पर बहुत क्रुद्ध हुआ।
पिता के डर से असत्य भाड्ढण, परन्तु ध्यान फिर भी भागने में रहा- मैंने प्रार्थना की कि मैं धूर्त लोगों के बहकावे में आकर इस ओर निकल आया और अत्यन्त दुःख पाया। आप शान्त हों, मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये। यहां से मैं घर आने ही को था, अच्छा हुआ कि आप आ गये हैं। आपके साथ चलने में प्रसन्न हूं। इस पर भी उनकी कोपाग्नि शान्त न हुआ और झपट कर मेरे कुर्ते की धज्जियां उड़ा दीं और तूंबा छीन कर बड़े जोर से धरती पर दे मारा और सैकड़ों प्रकार से मुझे दुर्वचन कहे और नवीन श्वेत वस्त्र धारण कराकर जहां ठहरे थे वहां मुझ को ले गये और वहां भी बहुत कठिन कठिन बातें कहकर बोले कि तू अपनी माता की हत्या किया चाहता है। मैंने कहा कि अब मैं चलूंगा तो भी मेरे साथ सिपाही कर दिये और उन्हें कह दिया कि कहीं क्षण भर भी इस निर्मोही को पृथक् मत छोड़ो और इस पर रात्रि को भी पहरा रखो परन्तु मैं भागने का उपाय सोचता था और अपने निश्चय में वैसा ही दृढ़ था जैसे कि वे अपने यत्न में संलग्न थे। मुझ को यही चिन्ता थी और इसी घात में था कि कोई अवसर भागने का हाथ लगे।
...दैवयोग से तीसरी रात्रि के तीन बजे पीछे पहरे वाला बैठा बैठा सो गया। मैं उसी समय वहां से लघुशंका के बहाने से भागकर आध कोस पर एक बगीचे के मन्दिर के शिखर में एक वटवृक्ष के सहारे से चढ़कर जल का लोटा लेकर छुपकर बैठ गया।...जब अन्धकार हुआ तब रात के सात बजे उस मन्दिर से नीचे उतर कर सड़क छोड़ किसी से पूछ वहां से दो कोस एक ग्राम था; वहां जाकर ठहरा और प्रातःकाल वहां से चला।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 42)
¤ स्वामी जी की असफलता का कारण
माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्य नहीं मिलेगा।
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)
¤ क्या स्वामी जी का आचरण उनके दर्शन के अनुकूल था?
स्वामी जी की मान्यताएं सही हैं या ग़लत? और वह ‘संसार को मुक्ति’ दिलाने के अपने उद्देश्य में सफल रहे या असफल? और यह कि क्या वास्तव में उन्हें सत्य का बोध प्राप्त था? आदि बातें जानने के लिए स्वयं उनके आहवान पर उनके साहित्य का अध्ययन करना ज़रूरी है। सच्चाई जानने के लिए उनके जीवन को स्वयं उनकी ही मान्यताओं की कसौटी पर परख लेना काफी है क्योंकि सच्चा ज्ञानी अपने उपदेश पर आचरण करके समाज के सामने आदर्श भी उपस्थित करता है।
स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि ईश्वर क्षमा चाहने वाले भक्तों के पाप भी क्षमा नहीं करता क्योंकि अपराधी को क्षमा करना अपराध को बढ़ावा देना है।
‘क्या ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है ?’ इसके उत्तर में वह कहते हैं -
‘नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 127)
‘न्याय और दया का नाम मात्र ही भेद है क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से... क्योंकि जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया हो उसको उतना वैसा ही दण्ड देना चाहिये, उसी का नाम न्याय है। और जो अपराधी को दण्ड न दिया जाए तो दया का नाश हो जाए क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक के छोड़ने में सहस्त्रों मुनष्यों को दुख प्राप्त होता है, वह दया किस प्रकार हो सकती है?’ (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम0, पृष्ठ 118)
अब स्वामी दयानन्द जी के उपरोक्त दर्शन के आधार पर स्वयं उनके आचरण को परख कर देखिये कि दया और न्याय का जो सिद्धान्त उन्होंने ईश्वर, राजा और धार्मिक जनों के लिए प्रस्तुत किया है, स्वयं उस पर कितना चलते थे?
सबसे पहले अनूपशहर ( सम्वत् 1924) की वह घटना देखिए, जिसमें एक ब्राह्मण ने उन्हें पान में ज़हर खिला दिया था। कर्तव्यनिष्ठ तहसीलदार सय्यद मुहम्मद ने अपराधी को गिरफ्तार करके स्वामी जी के आगे ला खड़ा किया तो वह बोले -
‘तहसीलदार साहब, मैं आपके कर्तव्यनिष्ठा से अत्यन्त प्रभावित हूँ। लेकिन आप इसे छोड़ दें। कारण, मैं संसार को कैद कराने नहीं, अपितु मुक्त कराने आया हूँ। यदि दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता, तो हम सन्यासी अपनी उदारता कैसे छोड़ सकते हैं।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द, पृष्ठ 49)
(3) इस प्रकार अपराधियों को क्षमा करना और दण्ड से छुड़वाना क्या स्वयं अपनी दार्शनिक मान्यता का खण्डन करना नहीं है?
(4) क्या स्वामी दयानन्द जी ने न्याय और दया को नष्ट नहीं कर दिया?
(5) दयानन्द जी ने अपनी दार्शनिक मान्यता के विपरीत जाकर अपने हत्या का प्रयास करने वाले को क्षमा क्यों कर दिया?
(6) क्या इस पाप कर्म की वृद्धि का बोझ स्वामी जी पर नहीं जाएगा?
(7) क्या एक दुष्ट हत्यारे को समाज में खुला छोड़कर उन्होंने एक अपराधी के उत्साह को नहीं बढ़ाया और पूरे समाज को खतरे में नहीं डाला?
स्वामी दयानन्द जी द्वारा अपने अपराधी को क्षमा करने की यह अकेली घटना नहीं है बल्कि कई मौक़ों पर उन्होंने अपने सताने वालों और हत्या का प्रयास करने वालों को क्षमा किया है।
‘फ़र्रूख़ाबाद में आर्यसमाज के एक सभासद की कुछ दुष्टों ने पिटाई कर दी। लोगों ने स्कॉट महोदय से उसे दण्ड दिलाया । पर स्वामी जी को रुचिकर न लगा। उन्होंने स्कॉट महोदय तथा सभासदों से कहा - चोट पहुंचाने वाले को इस तरह दण्डित करना आपकी मर्यादा के खि़लाफ है। महात्मा किसी को पीड़ा नहीं देते, अपितु दूसरों की पीड़ा हरते हैं।’ (युगप्रवर्तक0, पृष्ठ 130)
(8) क्या स्कॉट महोदय व तहसीलदार आदि दुष्टों को दण्ड देने वालों से दुष्टों को छोड़ने की सिफारिश करना उनको राजधर्म के पालन करने से रोकना नहीं है। जिसकी वजह से दुष्टों का उत्साह बढ़ा होगा और वे अधिक पाप करने में प्रवृत्त हुए होंगे?
(9) क्या अपने आचरण से उन्होंने अपने विचारों को निरर्थक और महत्वहीन सिद्ध नहीं कर दिया?
...एक और घटना देखिए, जिसे सबसे ज़्यादा प्रचारित किया जाता है। इसमें उनके धोड़ मिश्र रसोईये के द्वारा उन्हें विड्ढ देना बताया जाता है-
‘स्वामी जी को पता लग गया कि जगन्नाथ ने यह कार्य किया है। उन्होंने उससे कहा-‘जगन्नाथ, तुमने मुझे विष देकर अच्छा नहीं किया। मेरा वेदभाष्य कार्य अधूरा रह गया। संसार के हित को तुमने भारी हानि पहुँचाई है। हो सकता है, विधाता के विधान में यही हो । ये रूपए रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। यहाँ से नेपाल चले जाओ क्योंकि यहाँ तुम पकड़े जाओगे। मेरे भक्त तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।’ (युगप्रवर्तक0, पृष्ठ 151)
यदि इस घटना को सच माना जाए तो स्वामी दयानन्द जी की विश्वसनीयता ख़त्म हो जाती है।
(10) संसार के हित को भारी हानि पहुंचाने वाले दुष्ट हत्यारे को क्षमा करने का अधिकार तो स्वयं संसार को भी नहीं है बल्कि यह अधिकार तो स्वामी जी ईश्वर के लिए भी स्वीकार नहीं करते। फिर उन्होंने स्वयं किस अधिकार से एक दुष्ट हत्यारे को क्षमा करके रूपये देकर उसे भाग जाने का मशविरा दिया?
(11) हो सकता है कि इसी प्रकार के आचरण को देखकर जगन्नाथ पाचक ने सोचा हो कि अव्वल तो मैं पकड़ा नहीं जाऊंगा और यदि पकड़ा भी गया तो कौन सा स्वामी जी दण्ड दिलाते हैं, ‘हाथ जोड़ने आदि चेष्टा’ करके बच जाऊंगा और स्वामी जी की क्षमा करने की इसी आदत ने उस हत्यारे का उत्साह बढ़ाया हो?
-Link:-Unicode Part: Next-or one--three-and-Last
स्वामी जी ने बुद्धि और तर्क से काम लिया। उन्होंने आर्यजाति के गौरव की वापसी के लिए मूर्तिपूजा का खंडन किया। उन्होंने वेद का प्रचार किया। वेद को समझने के लिए उन्होंने अपनी मान्यताएं स्वयं स्थापित कीं। यह सब करना आसान काम नहीं था लेकिन उन्होंने किया। उनमें साहस कूट-कूट कर भरा था। उन्हें मौत की धमकियां दी गईं और उन पर कई बार क़ातिलाना हमले किए गए लेकिन वह इन से कभी नहीं डरे। उनमें रुपये-पैसे का लोभ नहीं था। उनमें इस तरह की कई ख़ूबियां थीं। जिनकी प्रशंसा उनके मिलने वालों ने की है। उन्होंने कहा कि सबको वेद पढ़ने का अधिकार है। सब वेद पढ़ें और वेदानुकूल आचरण करें। जो ऐसा न करेगा, वह ग़ोता खाता रहेगा। स्वामी जी का निमन्त्रण सबके लिए आम है।
¤ हमारा मक़सद
स्वामी जी अपना काम करके जा चुके हैं। उनके निमन्त्रण पर विचार करने का काम अब हमारा है। इसके लिए हमें पूर्वाग्रह से मुक्त होकर सोचना होगा। हम उनके अनुयायी हों या न हों लेकिन वेद हमारे पूर्वजों की विरासत है। यह हम सबके लिए है। अगर स्वामी दयानन्द जी ने वास्तव में सच्चा वेदार्थ जान लिया है तो उन्होंने हम पर बड़ा उपकार किया है। अब हम उनके माध्यम से वेदों को आसानी से समझ सकते हैं और अगर वह वेदों का सही अर्थ नहीं जान पाए थे और वह अपने अनुमान से वैसे ही कोई अर्थ बताकर चले गए हैं तो उस भ्रम के कारण लोगों को लोक-परलोक में नुक्सान पहुंचना भी तय है।
स्वामी जी के साहित्य और उनकी जीवनी के अध्ययन से हमने यही जानने की कोशिश की है कि स्वामी दयानन्द जी ने क्या खोजा और क्या पाया?
स्वामी जी से असहमत होने का अर्थ उनका निरादर करना हरगिज़ नहीं है। इसीलिए जहां कहीं उनके बारे में कोई राय दी गई है तो उनके लिए उन्हीं के शब्दों का प्रयोग किया गया हैे। इनसे भी किसी को कष्ट हो तो हम क्षमा चाहते हैं। इसका अर्थ यही है कि ये शब्द ही कष्टदायक हैं। दूसरों को भी इन शब्दों से दुख होता है। यह ख़याल करके इन्हें क्षमा-याचना सहित स्वामी जी के साहित्य से हटा दिया जाए।
¤ सच्चा योगी गुरू न मिला, नशे की लत पड़ी
मूलशंकर ने सच्चे योगी गुरू की खोज शुरू की, जो उसे ‘सच्चे शिव‘ के दर्शन करा सके। इस खोज में वह पहले ‘शुद्धचैतन्य’ और फिर ‘दयानन्द’ बन गये लेकिन उन्हें पूरे भारत में ऐसा कोई योगी गुरू नहीं मिला जो उन्हें ‘सच्चे शिव’ के दर्शन करा देता। इसके विपरीत स्वामी जी को चांडालगढ़ स्थित दुर्गाकुण्ड के मन्दिर में प्रवासकाल के दौरान नशे की लत और पड़ गई। वह स्वयं कहते हैं-
‘दुर्भाग्य से इस स्थान पर मुझे एक बड़ा व्यसन लग गया अर्थात् मुझको भंग सेवन करने का अभ्यास पड़ गया और प्रायः उसके प्रभाव से मैं मूर्च्छित हो जाया करता था।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित्र, पृ.50, षष्टम् संस्करण, मूल्यः250 रुपये, प्रकाशकः आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट 455 खारी बावली, दिल्ली 110006, दूरभाड्ढः 23958360)
योगी गुरू की खोज में असफल होने के बाद वह मथुरा में विरजानन्द स्वामी जी से मिले। विरजानन्द स्वामी जी कहते थे कि ‘तीन वर्ष में व्याकरण आता है’। स्वामी दयानन्द जी ने उनसे व्याकरण भी पूरे तीन साल नहीं पढ़ा। यहां रहने के दौरान भी स्वामी जी को सत्य-असत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाया।
¤ विद्या पाकर स्वामी जी ने शैव की स्थापना की?
मथुरा के बाद वह 2 वर्ष आगरा में रहे। इसके बाद वह ग्वालियर और करौली पहुंचे और फिर वह जयपुर पहुंच गए। इतनी लंबी यात्रा करने और इतनी विद्या पाने के बाद भी स्वामी जी को धर्म और सत्य का कुछ पता न चल पाया था। स्वामी जी कहते हैं-
‘वहां से आगे जयपुर को गया-वहां एक हरिश्चन्द्र विद्वान पंडित था। वहां मैंने प्रथम वैष्णवमत का खंडन करके शैवमत की स्थापना की। जयपुर के राजा महाराजा रामसिंह ने भी शैवमत को ग्रहण किया। इससे शैवमत का विस्तार हुआ और सहस्रों मालाएं मैंने अपने हाथ से दीं। वहां शैवमत इतना पक्का हुआ कि हाथी, घोड़े आदि सबके गले में भी रूद्राक्ष की मालाएं पड़ गईं।’ (म.द.स. का जी.च., पृ.53-54)
विदा होते समय बिरजानन्द स्वामी जी द्वारा उन्हें आर्ष ग्रन्थों के प्रचार की आज्ञा देना बताया जाता है, उसका क्या हुआ?
¤ स्वामी जी की राय शैवमत के बारे में
उन्हीं के शब्दों में देखिए-
‘(प्रश्न) शैव मत वाले तो अच्छे होते हैं?
(उत्तर) अच्छे कहां होते हैं? ‘जैसा प्रेतनाथ वैसा भूतनाथ’ जैसे वाममार्गी मन्त्रोपदेशादि से उन का धन हरते हैं वैसे शैव भी ‘ओं नमः शिवाय’ इत्यादि पवक्षरादि मन्त्रों का उपदेश करते, रूद्राक्ष भस्म धारण करते, मट्टी के और पाड्ढाणादि के लिंग बनाकर पूजते हैं और हर-हर बं बं और बकरे के शब्द के समान बड़ बड़ बड़ मुख से शब्द करते हैं। (सत्यार्थ प्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ. 287, 72वाँ संस्करण दिसम्बर 2009)
स्वामी जी ने स्वयं भी एक शैव परिवार में जन्म लिया था। बिरजानन्द स्वामी जी से व्याकरण पढ़ने के बाद भी उन्हें यह पता नहीं चला था कि ‘मैं कौन हूँ’, जो कि उनके द्वारा बिरजानन्द जी से पूछना बताया जाता है।
¤ स्वामी जी के समय में हिन्दू समाज की दशा
इस दौरान स्वामी जी ने मथुरा, काशी और वृन्दावन आदि तीर्थों की यात्रा की। जहां उन्होंने खुद प्रत्येक स्तर पर जो पाखण्ड और भ्रष्टाचार अपनी आंखों से देखा, उसे उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में बयान किया है। वह हरिद्वार के कुम्भ मेले में भी गए। वहां उन्होंने देखा-
‘संन्यासी जिनका काम जगत का सुधार करना था वह गिरी, पुरी, भारती, अरण्य, पर्वत, आश्रम, सरस्वती, सागर, तीर्थ, गुसांई-इन दस भागों में विभक्त होकर परस्पर गृहयुद्ध में फंसे हुए थे। ...राजा महाराजा आंख के अंधे गांठ के पूरे, इसी प्रकार के संड-मुसंडों के चेले और अनुयायी, तन, मन, धन, गुसांई और गुरू जी को अर्पण करने वाले, चाटुकार और भीरू दरबारियों के संसर्ग में दिन रात रहकर धर्म और संसार से बेसुध, अफ़ीम के गोले चढ़ाने में निपुण साधुओं का अविद्यान्धकार में फंसना और गृहस्थियों का विनाश, राजाओं को मूर्खों से संगति और विद्वानों के प्रति उपेक्षा; विद्वानों का मौनधारण और सत्य का प्रकाश न करना और इस पर एक सत्यप्रिय तथा सत्यवादी की निन्दा, यह सब देखकर स्वामी जी का चित्त अत्यन्त उत्तेजित हुआ, हृदय भर आया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 83)
स्वामी दयानन्द जी वास्तव में अपने निश्चय के पक्के और बड़े जीवट के स्वामी थे। उनके प्रयास से भारतीय समाज में वेद सामने आए और मूर्तिपूजा को एक बुराई के रूप में देखा जाने लगा। उन्होंने हिन्दू राजाओं को वेश्यागमन से रोका। उन्होंने सामान्य हिन्दुओं को भी नशा, व्यभिचार, समलैंगिकता व दूसरी बुराईयाँ छोड़ने का उपदेश दिया। इन सब उपदेशों के माध्यम से उन्होंने वर्णाश्रम धर्म को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया।
¤ मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिये?
एक इन्सान जब होश संभालता है तो ऐसे बहुत से प्रश्न उसके मन को बेचैन करते हैं। जब वह इस सृष्टि पर नज़र डालता है और पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं, फसलों और मौसमों को, धरती की सुंदरता और अंतरिक्ष की विशालता को, सूर्य से लेकर परमाणु तक को, उनकी संरचना, संतुलन और उपयोगिता को देखता है तो सहज ही कुछ प्रश्न पैदा होते हैं कि यह सब कुछ खुद से है या इसका कोई बनाने वाला और चलाने वाला है? अगर यह सब कुछ खुद से ही है तो इतना संतुलन और इतनी नियमबद्धता, व्यवस्था और उपयोगिता इन बुद्धि और चेतना से खाली निर्जीव पदार्थो में आई कैसे? और अगर कैसे भी इत्तेफाक़ से आ गई तो फिर निरन्तर कैसे बनी हुई है? और अगर ये सब ख़ुद से नहीं हैं बल्कि किसी ज्ञानवान हस्ती ने इस सृष्टि की रचना की है तो उसने ऐसा किस उद्देश्य से किया है? उसने मनुष्य को क्यों पैदा किया? और वह उससे क्या चाहता है? वह कौन सा मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी पैदाईश के उद्देश्य को पाने में सफल हो सकता है? आदि आदि।
मनुष्य अपने परिवार वालों को दुख उठाकर मरते हुए देखता है तो उसके दिल में मौत का डर बैठ जाता है। तब वह सोचने लगता है कि मौत से कैसे बचा जाए या कम से कम मौत के कष्ट से बचने का ही उपाय ढूंढ लिया जाए।
¤ स्वामी जी के घर छोड़ने का उद्देश्य था मृत्यु समय के दुःखों से बचना
स्वामी दयानन्द जी ने भी अपनी 14 वर्षीय बहन को विशूचिका (हैज़ा) से मरते हुए देखा। वह स्वयं बताते हैं-
‘सारांश यह है कि उसी समय पूर्ण विचार कर लिया कि जिस प्रकार हो सके मुक्ति प्राप्त करूं जिसके द्वारा मृत्यु समय के समस्त दुःखों से बचूं।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 39)
इस घटना के लगभग 3 वर्ष बाद उनके चाचा की मृत्यु भी विशूचिका से ही हो गई। स्वामी जी बताते हैं-
‘इसके पश्चात मुझे ऐसा वैराग्य हुआ कि संसार कुछ भी नहीं किन्तु यह बात माता-पिता जी से तो नहीं कही किन्तु अपने मित्रों और विद्वान पंडितों से पूछने लगा कि अमर होने का कोई उपाय मुझे बताओ। उन्होंने योगाभ्यास करने के लिए कहा। तब मेरे जी में आया कि अब घर छोड़कर कहीं चला जाऊं।’ (महर्षि दयानन्द सरस्तवी का जीवन चरित्र, पृष्ठ 40)
...और सचमुच वह एक दिन घर छोड़कर निकल खड़े हुए।
¤ स्वामी जी बच न पाए मृत्यु समय के दुःखों से
सारे जप-तप, यम-नियम और योगाभ्यास के बावजूद वह न तो अमर हो सके और न ही मुक्ति पा सके और न ही मृत्यु समय के भयानक दुःखोंे से बच सके, जिसके लिए वह घर से निकले थे। स्वामी जी को मरते समय अपनी बहन और अपने चाचा की अपेक्षा कई गुना अधिक दुःख भोगना पड़ा।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 821 पर लिखा है-
‘फिर उनको तीस-तीस चालीस-चालीस दस्त नित्य आया करते थे। जिससे वह दिन प्रतिदिन निर्बल होते गए।’
उन्हें पेट-दर्द भी होता था। उनका मूत्र कोयले के समान निकलता था। उनकी मुंह और जीभ पक गए थे। गले में कफ़ भी बहुत हो गया था। उनका बोलना भी बंद हो गया था। डाक्टर की बात का जवाब भी संकेत से देते थे। उनकी यह हालत 1 महीने से ज़्यादा रही।
‘एक दिन मृत्यु के समीप एक आर्य ने पूछा कि महाराज। आपका गला बैठ जाने का क्या कारण है तो मुख खोलकर बतलाया कि यहां से नाभि तक सब पक गया है और धीमे स्वर से कहा कि नाभि तक छाले पड़ गए हैं।’
(महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 835)
स्वामी जी का दोनों समय हवन भी छूट गया था। स्वामी जी को शौच के लिए बैठाने में भी चार आदमियों को लगना पड़ता था। वह स्वयं करवट तक भी न बदल पाते थे। उन्हें करवट भी दो-चार आदमी दिलाया करते थे। ये सेवक स्वामी जी का कहना कभी मान लेते थे और कभी टाल देते थे। मृत्यु से एक दिन पहले स्वामी जी ने उनसे नाई को 5 रुपये देने के लिए कहा लेकिन उन्होंने उसे 1 रुपया दिया। जिसकी शिकायत नाई ने स्वामी जी से की। स्वामी जी ने मृत्यु के दिन जब क्षौरकर्म करवाया तो स्नान करने की इच्छा की लेकिन उनके सेवकों ने स्वामी जी को नहीं नहलाया। इस तरह उनकी अंतिम इच्छा भी पूरी न हो पाई। उन्हें गीले कपड़े से सिर पोंछकर रह जाना पड़ा। इसी हाल में वह चल बसे।
¤ मक़सद और तरीक़ा, दोनों ग़लत
वास्तव में उनका मक़सद (उद्देश्य) और तरीक़ा दोनों ही ग़लत थे। दुनिया में अमर होने की इच्छा करना भी ग़लत है और इस मक़सद के लिए घर छोड़ना भी ग़लत है। दुनिया में अमर होना या दुःख से बच पाना प्राकृतिक नियम और सृष्टि विज्ञान के विरूद्ध है।
ज़िंदगी का सच्चा मक़सद और उसे पाने का सही तरीक़ा केवल सच्चा गुरू ही बता सकता है। इसीलिए ज्ञान देने वाला एक गुरू वास्तव में ज़मीन और आसमान के सारे ख़जानों से भी बढ़कर है। उसका अनुसरण करके ही मनुष्य अपने लक्ष्य को पाकर सफल हो सकता है। इस तरह एक सच्चे और ज्ञानी गुरू की तलाश हरेक मनुष्य की बुनियादी और सबसे बड़ी ज़रूरत है। लेकिन जैसा कि इस दुनिया का क़ायदा है कि हर असली चीज़ की नक़ल भी यहाँ मौजूद है। इसलिए जब कोई मनुष्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीजों तक की सही जानकारी नहीं होती लेकिन वे ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।
¤ सीढ़ी तोड़ने के कारण स्वामी जी को न परमेश्वर मिला और न सुयोग्य शिष्य
माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- ‘ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ 216 30वां संस्करण प्रकाशक : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली 6)
माता-पिता को छोड़कर तो वह खुद ही निकल गए थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वह ख़ुद दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया। इस तरह उन्होंने अतिथि सेवा का मौक़ा भी खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन वह उनके नियम भंग कर देते थे तब आचार्य इतने ज़ोर से उन्हें डण्डा मारता था कि उसका निशान उनके शरीर पर हमेशा के लिए छप जाता था। एक बार तो बिरजानन्द जी ने अपनी अवज्ञा के कारण अपनी पाठशाला से उनका नाम ही काट दिया था। इसी सीढ़ी के टूटे होने के कारण न उन्हें परमेश्वर मिला, न गुरू का प्यार मिला और न ही कोई अच्छा शिष्य मिल पाया। वह स्वयं कहा करते थे-
‘मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्य नहीं मिलेगा। इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121, प्रथम संस्करण जुलाई 1994, मूल्य: 20 रुपये, लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार, गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर उत्तराखण्ड में अध्यापक, प्रकाशक: मधुर प्रकाशन 2804 गली आर्य समाज, बाज़ार सीताराम नई दिल्ली 110006, दूरभाष : 3268231, 7513206)
अपनी सीढ़ी तोड़ डालने वालों को नादान समझना चाहिए, गुरु नहीं। भारत को विश्वगुरु के महान पद से गिराने में ऐसे अज्ञानियों का बहुत बड़ा हाथ है, जो पहले अपनी सीढ़ी तोड़ बैठे और फिर जीवन भर भटकते रहे और दूसरों को भी भटकाते रहे। स्वामी जी जैसे लोगों के जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि लोगों को अपनी सीढ़ी की रक्षा करनी चाहिए अर्थात अपने माता-पिता और अपने आश्रितों की सेवा करते रहना चाहिए। जो कि स्वामी जी नहीं कर पाए।
¤ विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले
आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने भी उनके विश्वस्त सेवकों के विषय में यही बताया है-
‘विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-स्वामी जी के पास जितने मनुष्य भरोसे के थे, सब निकम्मे निकले।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
‘स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (हवाला उपरोक्त)
स्वामी जी को विश्वस्त और कर्मठ सेवक न मिल पाने का कारण भी माता-पिता के विश्वास को भंग करना है।
¤ स्वामी जी के विषय में उनके पिताजी की राय
स्वामी जी ने अपने द्वारा लिखे गए जीवन चरित्र में बताया है कि जब वह घर से चुपके से निकल आए थे तो उनके पिता जी ने उन्हें बहुत तलाश किया और आखि़रकार उन्होंने स्वामी जी को सिद्धपुर के मेले में पकड़ लिया था। स्वामी जी के शब्दों में-
‘एक दिन उस शिवालय में जहां मैं उतरा था प्रातःकाल एकाएक मेरे बाप और चार सिपाही मेरे सम्मुख आ खड़े हुए। उस समय वह ऐसे क्रोध में भरे हुए थे कि मेरी आंख उनकी ओर नहीं होती थी। जो उनके जी में आया सो कहा और मुझे धिक्कारा कि तूने सदैव को हमारे कुल को दूड्ढित किया और तू हमारे कुल को कलंक लगाने वाला उत्पन्न हुआ।
मेरे मन में आतंक बैठ गया कि कदाचित् मेरी कुछ दुदर्शा करेंगे। इस डर से मैंने उठकर उनके पांव पकड़ लिये। मेरा पिता मुझ पर बहुत क्रुद्ध हुआ।
पिता के डर से असत्य भाड्ढण, परन्तु ध्यान फिर भी भागने में रहा- मैंने प्रार्थना की कि मैं धूर्त लोगों के बहकावे में आकर इस ओर निकल आया और अत्यन्त दुःख पाया। आप शान्त हों, मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये। यहां से मैं घर आने ही को था, अच्छा हुआ कि आप आ गये हैं। आपके साथ चलने में प्रसन्न हूं। इस पर भी उनकी कोपाग्नि शान्त न हुआ और झपट कर मेरे कुर्ते की धज्जियां उड़ा दीं और तूंबा छीन कर बड़े जोर से धरती पर दे मारा और सैकड़ों प्रकार से मुझे दुर्वचन कहे और नवीन श्वेत वस्त्र धारण कराकर जहां ठहरे थे वहां मुझ को ले गये और वहां भी बहुत कठिन कठिन बातें कहकर बोले कि तू अपनी माता की हत्या किया चाहता है। मैंने कहा कि अब मैं चलूंगा तो भी मेरे साथ सिपाही कर दिये और उन्हें कह दिया कि कहीं क्षण भर भी इस निर्मोही को पृथक् मत छोड़ो और इस पर रात्रि को भी पहरा रखो परन्तु मैं भागने का उपाय सोचता था और अपने निश्चय में वैसा ही दृढ़ था जैसे कि वे अपने यत्न में संलग्न थे। मुझ को यही चिन्ता थी और इसी घात में था कि कोई अवसर भागने का हाथ लगे।
...दैवयोग से तीसरी रात्रि के तीन बजे पीछे पहरे वाला बैठा बैठा सो गया। मैं उसी समय वहां से लघुशंका के बहाने से भागकर आध कोस पर एक बगीचे के मन्दिर के शिखर में एक वटवृक्ष के सहारे से चढ़कर जल का लोटा लेकर छुपकर बैठ गया।...जब अन्धकार हुआ तब रात के सात बजे उस मन्दिर से नीचे उतर कर सड़क छोड़ किसी से पूछ वहां से दो कोस एक ग्राम था; वहां जाकर ठहरा और प्रातःकाल वहां से चला।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 42)
¤ स्वामी जी की असफलता का कारण
माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्य नहीं मिलेगा।
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)
¤ क्या स्वामी जी का आचरण उनके दर्शन के अनुकूल था?
स्वामी जी की मान्यताएं सही हैं या ग़लत? और वह ‘संसार को मुक्ति’ दिलाने के अपने उद्देश्य में सफल रहे या असफल? और यह कि क्या वास्तव में उन्हें सत्य का बोध प्राप्त था? आदि बातें जानने के लिए स्वयं उनके आहवान पर उनके साहित्य का अध्ययन करना ज़रूरी है। सच्चाई जानने के लिए उनके जीवन को स्वयं उनकी ही मान्यताओं की कसौटी पर परख लेना काफी है क्योंकि सच्चा ज्ञानी अपने उपदेश पर आचरण करके समाज के सामने आदर्श भी उपस्थित करता है।
स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि ईश्वर क्षमा चाहने वाले भक्तों के पाप भी क्षमा नहीं करता क्योंकि अपराधी को क्षमा करना अपराध को बढ़ावा देना है।
‘क्या ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है ?’ इसके उत्तर में वह कहते हैं -
‘नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 127)
‘न्याय और दया का नाम मात्र ही भेद है क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से... क्योंकि जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया हो उसको उतना वैसा ही दण्ड देना चाहिये, उसी का नाम न्याय है। और जो अपराधी को दण्ड न दिया जाए तो दया का नाश हो जाए क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक के छोड़ने में सहस्त्रों मुनष्यों को दुख प्राप्त होता है, वह दया किस प्रकार हो सकती है?’ (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम0, पृष्ठ 118)
अब स्वामी दयानन्द जी के उपरोक्त दर्शन के आधार पर स्वयं उनके आचरण को परख कर देखिये कि दया और न्याय का जो सिद्धान्त उन्होंने ईश्वर, राजा और धार्मिक जनों के लिए प्रस्तुत किया है, स्वयं उस पर कितना चलते थे?
सबसे पहले अनूपशहर ( सम्वत् 1924) की वह घटना देखिए, जिसमें एक ब्राह्मण ने उन्हें पान में ज़हर खिला दिया था। कर्तव्यनिष्ठ तहसीलदार सय्यद मुहम्मद ने अपराधी को गिरफ्तार करके स्वामी जी के आगे ला खड़ा किया तो वह बोले -
‘तहसीलदार साहब, मैं आपके कर्तव्यनिष्ठा से अत्यन्त प्रभावित हूँ। लेकिन आप इसे छोड़ दें। कारण, मैं संसार को कैद कराने नहीं, अपितु मुक्त कराने आया हूँ। यदि दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता, तो हम सन्यासी अपनी उदारता कैसे छोड़ सकते हैं।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द, पृष्ठ 49)
(3) इस प्रकार अपराधियों को क्षमा करना और दण्ड से छुड़वाना क्या स्वयं अपनी दार्शनिक मान्यता का खण्डन करना नहीं है?
(4) क्या स्वामी दयानन्द जी ने न्याय और दया को नष्ट नहीं कर दिया?
(5) दयानन्द जी ने अपनी दार्शनिक मान्यता के विपरीत जाकर अपने हत्या का प्रयास करने वाले को क्षमा क्यों कर दिया?
(6) क्या इस पाप कर्म की वृद्धि का बोझ स्वामी जी पर नहीं जाएगा?
(7) क्या एक दुष्ट हत्यारे को समाज में खुला छोड़कर उन्होंने एक अपराधी के उत्साह को नहीं बढ़ाया और पूरे समाज को खतरे में नहीं डाला?
स्वामी दयानन्द जी द्वारा अपने अपराधी को क्षमा करने की यह अकेली घटना नहीं है बल्कि कई मौक़ों पर उन्होंने अपने सताने वालों और हत्या का प्रयास करने वालों को क्षमा किया है।
‘फ़र्रूख़ाबाद में आर्यसमाज के एक सभासद की कुछ दुष्टों ने पिटाई कर दी। लोगों ने स्कॉट महोदय से उसे दण्ड दिलाया । पर स्वामी जी को रुचिकर न लगा। उन्होंने स्कॉट महोदय तथा सभासदों से कहा - चोट पहुंचाने वाले को इस तरह दण्डित करना आपकी मर्यादा के खि़लाफ है। महात्मा किसी को पीड़ा नहीं देते, अपितु दूसरों की पीड़ा हरते हैं।’ (युगप्रवर्तक0, पृष्ठ 130)
(8) क्या स्कॉट महोदय व तहसीलदार आदि दुष्टों को दण्ड देने वालों से दुष्टों को छोड़ने की सिफारिश करना उनको राजधर्म के पालन करने से रोकना नहीं है। जिसकी वजह से दुष्टों का उत्साह बढ़ा होगा और वे अधिक पाप करने में प्रवृत्त हुए होंगे?
(9) क्या अपने आचरण से उन्होंने अपने विचारों को निरर्थक और महत्वहीन सिद्ध नहीं कर दिया?
...एक और घटना देखिए, जिसे सबसे ज़्यादा प्रचारित किया जाता है। इसमें उनके धोड़ मिश्र रसोईये के द्वारा उन्हें विड्ढ देना बताया जाता है-
‘स्वामी जी को पता लग गया कि जगन्नाथ ने यह कार्य किया है। उन्होंने उससे कहा-‘जगन्नाथ, तुमने मुझे विष देकर अच्छा नहीं किया। मेरा वेदभाष्य कार्य अधूरा रह गया। संसार के हित को तुमने भारी हानि पहुँचाई है। हो सकता है, विधाता के विधान में यही हो । ये रूपए रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। यहाँ से नेपाल चले जाओ क्योंकि यहाँ तुम पकड़े जाओगे। मेरे भक्त तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।’ (युगप्रवर्तक0, पृष्ठ 151)
यदि इस घटना को सच माना जाए तो स्वामी दयानन्द जी की विश्वसनीयता ख़त्म हो जाती है।
(10) संसार के हित को भारी हानि पहुंचाने वाले दुष्ट हत्यारे को क्षमा करने का अधिकार तो स्वयं संसार को भी नहीं है बल्कि यह अधिकार तो स्वामी जी ईश्वर के लिए भी स्वीकार नहीं करते। फिर उन्होंने स्वयं किस अधिकार से एक दुष्ट हत्यारे को क्षमा करके रूपये देकर उसे भाग जाने का मशविरा दिया?
(11) हो सकता है कि इसी प्रकार के आचरण को देखकर जगन्नाथ पाचक ने सोचा हो कि अव्वल तो मैं पकड़ा नहीं जाऊंगा और यदि पकड़ा भी गया तो कौन सा स्वामी जी दण्ड दिलाते हैं, ‘हाथ जोड़ने आदि चेष्टा’ करके बच जाऊंगा और स्वामी जी की क्षमा करने की इसी आदत ने उस हत्यारे का उत्साह बढ़ाया हो?
-Link:-Unicode Part: Next-or one--three-and-Last
पहली किस्त चार में से swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition-Part-1
डा. अनवर जमाल ( पी डी एफ mediafire और archive से प्राप्त कर सकते हैं)
--स्वागत----
डा. अनवर जमाल साहब की पुस्तक ‘दयानन्द जी ने क्या खोजा, क्या पाया?’ का प्रथम संस्करण अगस्त 2009 में प्रकाशित हुआ। इसका सभी वर्ग के पाठकों द्वारा जिस उत्साह के साथ स्वागत किया गया। उसने बहुत जल्द इसके दूसरे संस्करण की ज़रूरत पैदा कर दी लेकिन डाक्टर साहब की व्यस्तता के चलते यह काम समय लेता चला गया। अब इसी पुस्तक का दूसरा संस्करण आपके हाथों में है। इस नए संस्करण के टाइटिल में आर्य समाज के संस्थापक के नाम के साथ स्वामी शब्द की वृद्धि कर दी गई है क्योंकि वेद-क़ुरआन साहित्य के रचयिता एक बड़े मुस्लिम आलिम ने ऐसा करने के लिए कहा था। उचित सलाह देने और उसकी क़द्र करने की यह एक अच्छी मिसाल है। इस नए संस्करण में बहुत से ऐसे तथ्य और दे दिए गए हैं जो कि पहले संस्करण में नहीं हैं। इस तरह यह प्रथम संस्करण से अलग एक नई पुस्तक बन गई है कि अगर दोनों पुस्तकें साथ-साथ छपती रहें तो भी दोनों अपनी जगह पूरा नफ़ा देती रहेंगी।
यह पुस्तक हिन्दी साहित्य में अपनी तरह की पहली पुस्तक है। जिसमें डा. अनवर जमाल साहब ने स्वामी दयानन्द जी के सिद्धान्तों की व्यवहारिकता को स्वयं स्वामी जी के जीवन के दर्पण में देखने का प्रयास किया है। इस कार्य के लिए उन्होंने काफ़ी रिसर्च की है। उनकी रिसर्च का उद्देश्य आर्य समाज मत के संस्थापक को दोष देना नहीं है बल्कि उन अवरोधों को चिन्हित करना है l जिन्हें हटाने का स्वाभाविक परिणाम वैदिक धर्म और इसलाम के मानने वालों के बीच क्रमशः एकता और एकत्व की स्थापना है।
लेखक ने अपने शोध में पाया है कि सबका ईश्वर और सारी मानव-जाति का धर्म एक ही है, दोष यदि कहीं है तो मतभेद के कारण है और यह मतभेद दार्शनिकों और आलिमों की निजी व्याख्याओं के कारण है। ईश्वर के ज्ञान और उसकी विशाल प्रकृति के सभी रहस्यों को कोई सामान्य मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि से बिल्कुल ठीक ठीक जान ले, यह संभव नहीं है। समय के साथ ये मतभेद स्वयं ही दूर होते जा रहे हैं, यह हर्ष का विषय है। हम इन परिवर्तनों को जागरूक होकर अंगीकार कर सकें तो हिन्दू-मुस्लिम चेतना के एक होने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी। जिसके असर से पूरी दुनिया में फैले हुए हिन्दू-मुस्लिम एक अजेय शक्ति बन जाएंगे। इसके बाद भारत पूरे विश्व का नेतृत्व करने की शक्ति सहज ही अर्जित कर लेगा। इस महान एकता में बाधक बनने वाले विचारों को ईश्वर की प्रकृति सुप्त और मृत करते हुए भारतीय चेतना का परिमार्जन निरन्तर कर ही रही है।
‘बल्कि हम तो असत्य पर सत्य की चोट लगाते हैं तो वह उसका सिर तोड़ देता है। फिर क्या देखते हैं कि वह मिटकर रह जाता है और तुम्हारे लिए तबाही है उन (असत्य) बातों के कारण जो तुम बनाते हो।’ -क़ुरआन 21,18
सो सभी के लिए ज़रूरी है कि इस काल क्रिया को गंभीरतापूर्वक लें और इसे समझकर अपना भरपूर सहयोग दें। मतभेद वाले मुद्दों पर ज़ोर देने के बजाय वेद-क़ुरआन के समान सूत्रों पर मिलकर काम करने से समाज में प्रेम और सहयोग की भावना बढ़ेगी। यह निश्चित है। इसी सराहनीय उद्देश्य के लिए यह पुस्तक लिखी गई है।
देश की उन्नति और मानव एकता के लिए काम करने वाले बहुत से भाईयों ने हमारे पते पर संपर्क करके यह पुस्तक प्राप्त की और उन्होंने इसे विद्वानों तक पहुंचाया। ऐसे भाईयों में ख़ास तौर पर मास्टर अनवार अहमद साहब, पुराना बाज़ार, हापुड़ उ. प्र., मोबाईल नं. 08909003427 और जनाब शफ़ीक़ अहमद साहब, ज़िला सहारनपुर का नाम लिया जा सकता है। उनके ज़रिए से यह पुस्तक बहुत से आर्य विद्वानों तक पहुंची। विद्वान लेखक के साथ हम मास्टर साहब का भी शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने लेखक महोदय के द्वारा एक आर्य भाई कर्म सिंह शास्त्री जी के सवालों के जवाब में सौ पृष्ठ से ज़्यादा लिखे उनके एक विस्तृत जवाबी पत्र को पढ़ लिया, जिसे वह 8 वर्षों से अपनी अलमारी में रखे हुए थे। मास्टर साहब के बहुत आग्रह पर उन्होंने अपने इस शोध-पत्र के चन्द ख़ास बिन्दुओं को एक संक्षिप्त पुस्तक का रूप दे दिया जो कि बहुत सी ग़लतफ़हमियों को दूर करने का सशक्त माध्यम बन रही है। इंटरनेट के कारण इस पुस्तक को देश के साथ साथ विदेशों में भी पढ़ा और सराहा गया है। इस नवीन संस्करण को भी गूगल सर्च के माध्यम से आसानी से तलाश करके पढ़ा जा सकता है। पुस्तक का लिंक मंगवाने और उचित सुझाव देने के लिए भी पाठक ईमेल कर सकते हैं।
‘गायत्री मंत्र का रहस्य’ (अभी तक 3 भाग) डाक्टर अनवर जमाल साहब की एक और अद्भुत लेखमाला है, जिसमें उन्होंने इस वेद-मंत्र का ठीक शाब्दिक अनुवाद करने में सफलता पाई है। यही पहला और सही शाब्दिक अनुवाद वह कुंजी है जिससे मंत्र का पाठ करने वाले की वैज्ञानिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास एक साथ होता है और तुरंत से ही होना शुरू हो जाता है। उन्होंने इसमें तर्क सहित गायत्री मंत्र पर उठने वाली सभी गूढ़ आपत्तियों का निराकरण कर दिया है। इंटरनेट पर उनकी यह लेखमाला देखकर हमारा दिल चाहता है कि डाक्टर साहब गायत्री मंत्र पर अपने इस अमूल्य शोध को भी एक पुस्तक का रूप देकर सबके लिए उपलब्ध करा दें ताकि गायत्री मंत्र से लगाव रखने वाले सभी मनुष्यों का भला हो।
डा. अयाज़ अहमद
हिन्दी ब्लॉगर व सम्पादक ‘वन्दे ईश्वरम्’ मासिक
11 सितम्बर 2014
मेन मार्कीट, 117 साबुनग्रान
देवबन्द, उ. प्र. 247554
email: ayazdbd@gmail.com
blogs:
drayazahmad.blogspot.in
vandeishwaram.blogspot.in
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प्रस्तावना
यह विश्वविदित है कि परम आदरणीय ईशदूत मुहम्मद साहब (सल्ल.) पर इस्लाम धर्म का पवित्र धार्मिक ग्रन्थ क़ुरआन अवतरित हुआ। सम्भवतः इसी कारण उनकी शिक्षाओं के विषय में भारत वर्ष ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में नर-नारियों की रुचि बढ़ती गई और इसी कारण से इस्लाम धर्म फलता-फूलता गया। बड़े-बड़े विद्वान, कलाकार-वैज्ञानिक, उद्योगपति, व्यवसायी, ग़रीब, अमीर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल.) व पवित्र धार्मिक ग्रन्थ क़ुरआन की शिक्षाओं के बारे में भली-भाँति परिचित होते चले गये।
कुछ यथास्थितिवादी कट्टरपंथी मनीड्ढियों, स्वामी, महात्माओं ने इस्लाम के पवित्र धार्मिक ग्रन्थ क़ुरआन को लेकर उनकी शिक्षाओं को तोड़-मरोड़ कर तथा अशोभनीय आलोचना लिखकर जन-समूह को गुमराह, भ्रमित करने का दुस्साहस कर कुप्रयास किया है। प्रस्तुत पुस्तक ‘‘स्वामी दयानन्द जी ने क्या खोजा, क्या पाया?’’ में उन आपत्तियों तथा तथ्यों का विश्लेषण करते हुए जन-समूह के मन-मस्तिष्क में व्याप्त आशंकाओं व दुविधाओं को दूर करने का सफल प्रयत्न किया गया है।
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपने सामाजिक एवं धार्मिक ग्रन्थ ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ के अधिकांशः समुल्लास में इस्लाम धर्म, क़ुरआन, जैन धर्म, बुद्ध धर्म एवं ईसाई धर्म के प्रति चुनौतीपूर्ण शब्दों में अशोभनीय कटाक्ष किया है, जो कि वास्तव में ही निन्दनीय प्रतीत होता है। विद्वान लेखक डा. अनवर जमाल ने प्रस्तुत पुस्तक में बहुत ही सारगर्भित रूप से स्पष्टीकरण कर अपनी विद्वत्ता का परिचय दिया है, जो कि सराहनीय है और लेखक बधाई के पात्र हैं।
यहां पाठक बंधुओं को स्मरण कराना चाहूंगा कि भारत वर्ष में जाति-व्यवस्था एक ऐसी इमारत है, जिसमें सीढ़ियाँ नहीं हैं और जो जहाँ है वह सदैव वहीं रहने को बाध्य है। आखि़र ऐसा क्यों? यह प्रश्न मुझे ही नहीं अपितु प्रत्येक बुद्धिजीवी को निशदिन कचोटता रहता है? आर्यों द्वारा थोपी गई जाति आधारित असमानतावादी सामाजिक कुव्यवस्था का स्वामी दयानन्द ने खण्डन क्यों नहीं किया, आश्चर्य होता है?
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक डा. अनवर जमाल जी ने इस आधुनिक युग में स्वामी जी की पुस्तक सत्यार्थ-प्रकाश में उल्लिखित हिन्दू धर्म से अन्यत्र धर्मों की टीका टिप्पणी और आलोचनाओं पर एक प्रभावशाली ज़ोरदार प्रहार कर शिक्षित और राष्ट्रीय हित के विचारवान लोगों को यह चिन्तन-मनन करने के लिए विवश कर दिया है कि स्वामी जी ने देश-हित और जनहित में खोजा एवं पाया बहुत कम था। मात्र इसके कि उन्होंने कट्टरता को ही पनपाया।
सम्मानित लेखक डा. अनवर जमाल साहब का यह प्रयास बहुत ही सराहनीय व प्रशंसापूर्ण कार्य साहित्य क्षेत्र में सर्वदा मील का पत्थर माना जायेगा। वे इस शुभ कार्य के लिए बधाई के सुयोग्य पात्र हैं तथा सम्पादक मण्डल के सभी सदस्यों को बधाई देना चाहूंगा, जिनके अथक प्रयास से यह पुस्तक प्रकाशित हुई है। मुझे उन से आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में भी जनहित में दक़ियानूसी लेखकों पर अपनी टिप्पणी का प्रहार कर सर्वसमाज का मार्गदर्शन करते रहेंगे। मैं उनकी इस पुस्तक के लिए हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।
भवतु सब्ब मंगलम्।
19.02.2014
आपका शुभाकांक्षी
हीरालाल कर्दम वरिष्ठ साहित्यकार
189, श्रद्धांजलि भवन, कोठी गेट
जनपद हापुड़ (उ. प्र.)
मोबाईल नं. 9997487981
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भूमिका
इन्सान का रास्ता नेकी और भलाई का रास्ता है। यह रास्ता सिर्फ उन्हें नसीब होता है जो धर्म और दर्शन (Philosophy) में अन्तर जानने की बुद्धि रखते हैं। धर्म ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है जो मूलतः न बदलता है और न ही कभी बदला जा सकता है, अलबत्ता धर्म से हटने वाला अपने विनाश को न्यौता दे बैठता है और जब यह हटना व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो तो फिर विनाश की व्यापकता भी बढ़ जाती है।
दर्शन इन्सानी दिमाग़ की उपज होते हैं। ये समय के साथ बनते और बदलते रहते हैं। धर्म सत्य होता है जबकि दर्शन इन्सान की कल्पना पर आधारित होते हैं। जैसे सत्य का विकल्प कल्पना नहीं होती है। ऐसे ही धर्म की जगह दर्शन काम नहीं दे सकता। दर्शन में सही और लाभदायक शिक्षाएं होती हैं लेकिन इनसे लाभ लेने के लिए भी धर्म का ज्ञान अनिवार्य है।
धर्म को भुलाकर दर्शन के अनुसार जीना ग़लत ढंग से जीना है, जिसका अंजाम तबाही की शक्ल में सामने आता है। इसीलिए हज़ारों वर्ष पहले हमारे समाज में बहुदेववाद, जातिवाद और अन्याय पनपा, युद्ध हुए। एक आर्यावर्त में हज़ारों देश बने। विदेशी आक्रमण से ज़्यादा देशी आक्रमण हुए। परायों से ज़्यादा अपनों का ख़ून, अपनों के हाथों बहता रहा। विद्वान बताते हैं कि अकेले महाभारत के युद्ध में ही 1 अरब 66 करोड़ मनुष्य मारे गए। हज़ारों युद्ध और भी हुए, लाखों तबाहियाँ हुईं और आखि़रकार भारतीय विदेशियों के ग़ुलाम बन गए। वे आज भी क़र्ज़दार हैं। भारत को तीसरी दुनिया के देशों में गिना जाता है। इस तरह धर्म वाला विश्वगुरू भारत दर्शनों पर चलकर बर्बाद हो गया।
भारत एक धर्म प्रधान देश था लेकिन बाद में दार्शनिकों ने इसे दर्शन प्रधान बना दिया। आज हर तरफ़ दर्शनों का बोलबाला है। दर्शनों की भीड़ में धर्म कहीं खो गया है। आज वैदिक धर्म में अग्नि का बड़ा महत्व है। अग्नि के बिना यज्ञ-हवन नहीं हो सकता। वैदिक धर्म के 16 संस्कारों में से कोई एक भी बिना अग्नि के संपन्न नहीं हो सकता। जबकि अग्नि की खोज से पहले मनुष्य परमेश्वर की उपासना और अंतिम संस्कार आदि अग्नि के बिना ही करता था।
अग्नि की खोज के बाद धर्म के रूप को बदल दिया गया। पहले जिस धर्म में उपासना के लिए ध्यान और नमन था, उसमें अब हवन भी शुरू कर दिया। इस तरह धर्म से हटने और दर्शन पर चलने की शुरूआत हुई। इन्हें लिखा गया तो वर्तमान वेद, उपनिषद व दर्शन आदि बन गए। समय के साथ यज्ञ के रीति रिवाज जटिल हो गए। राजकोष जनकल्याण के कामों पर ख़र्च होने के बजाय महीनों चलने वाले महंगे यज्ञों में स्वाहा होने लगा। तब बौद्ध, जैन और चार्वाक आदि ने जनता के विरोध को स्वर दिया। उनकी बातों में भी दर्शन था। यज्ञ करने वाले और उनका विरोध करने वाले, दोनों ही दर्शन की बातें कर रहे थे। धर्म कहीं पीछे छूट चुका था।
ये अनेकों दर्शन धर्म की जगह लेते चले गए। इसी से विकार जन्मे। सुधारकों ने उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। लाखों गुरूओं के हज़ारों साल के प्रयास के बावजूद यह भारत भूमि आज तक जुर्म, पाप और अन्याय से पवित्र न हो सकी। कारण, प्रत्येक सुधारक ने पिछले दर्शन की जगह अपने दर्शन को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया, धर्म को नहीं। उन्हें पता ही न था कि दर्शनों की रचना से पूर्व धर्म का स्वरूप क्या था ?
स्वामी दयानन्द जी भी एक ऐसे ही दार्शनिक थे। धर्म को न जानने के कारण उन्होंने सुबह शाम अग्निहोत्र (हवन) करना हरेक मनुष्य का कर्तव्य निश्चित कर दिया और न करने वाले को सत्यार्थप्रकाश, चौथे समुल्लास (पृष्ठ 65) में शूद्र घोषित कर दिया। आर्य समाज मंदिरों में भी दोनों समय हवन नहीं होता। आर्य समाज के सदस्य और पदाधिकारी तक दोनों समय हवन नहीं करते, कर भी नहीं सकते। सुबह शाम हवन, वह आर्य समाजियों से अपने सामने भी न करा पाए।
नतीजा यह हुआ कि जो लोग उनके पास आर्य बनने के लिए आते थे, वे हवन न करने के कारण शूद्र अर्थात मूर्ख बनते रहे। स्वामी दयानंद जी के अनुसार सनातनी पंडित लोगों को मूर्ख बना रहे थे और उनका विरोध करने वाले स्वामी जी ख़ुद भी आजीवन यही करते रहे। उनके बाद भी यह सिलसिला जारी है। उनकी घोर असफलता का कारण केवल यह था कि उन्हें दर्शन का ज्ञान था, धर्म का नहीं।
धर्म में ध्यान और नमन है, हवन नहीं। अग्नि की खोज से पहले भी धर्म यही था और आज भी धर्म यही है। सनातन काल से मनुष्य का धर्म यही है। इसलाम इसी सनातन धर्म की शिक्षा देता है। इसलाम का विरोध वही करता है, जिसे धर्म के आदि सनातन स्वरूप का ज्ञान नहीं है। ऐसे ही दार्शनिकों के कारण बहुत से मत बने और अधिकतर मनुष्य धर्म से हटकर विनाश को प्राप्त हुए।
जिस भूमि के अन्न-जल से हमारी परवरिश हुई और जिस समाज ने हम पर उपकार किया, उसका हित चाहना हमारा पहला कर्तव्य है। मानवता को महाविनाश से बचाने के उद्देश्य से ही यह पुस्तक लिखी गई है। जगह-जगह मिलने वाले दयानन्दी बंधुओं के बर्ताव ने भी इस पुस्तक की ज़रूरत का अहसास दिलाया और स्वयं स्वामी जी का आग्रह भी था-
‘इस को देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझे वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है।’ (भूमिका, सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ 5, 30वाँ संस्करण)
सो हमने अपना कर्तव्य पूरा किया। अब ज़िम्मेदारी आप की है। आपका फै़सला बहुत अहम है। अपना शुभ-अशुभ अब स्वयं आपके हाथ है। स्वामी जी के शब्दों में हम यह विनम्र निवेदन करना चाहेंगे कि
‘यह लेख हठ, दुराग्रह, ईष्र्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिए किया गया है न कि इनको बढ़ाने के अर्थ। क्योंकि एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह परस्पर को लाभ पहुँचाना हमारा मुख्य कर्म है।’ (सत्यार्थप्रकाश, अनुभूमिका 4, पृ.360)
‘इस मेरे कर्म से यदि उपकार न मानें तो विरोध भी न करें। क्योंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि या विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने का है।’ (सत्यार्थप्रकाश, अनुभूमिका, पृ.186)
विनीत,
डा. अनवर जमाल
दिनांक - बुद्धवार, 29 जुलाई 2009
श्रावण, अष्टमी द्वितीया, सं. 2066
द्वितीय, दिनांकः रविवार, 15 सितम्बर 2013
9 ज़ी-क़ाअदा 1434 हिजरी
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¤ क्या से क्या हो गया?
वास्तव में परम प्रशंसा, स्तुति और वन्दना उस परमेश्वर के लिए है जो अपनी पैदा की हुई सारी चीज़ों का पालनहार है और उन्हें पूर्णता तक पहुंचाने में सक्षम है। वह एक है। सबका मालिक वही एक है। सब चीज़ें उसी के नियमों के अधीन हैं। यह परम सत्य है। आदिकाल से इस एक सत्य को विद्वानों ने बहुत से अलंकारों से सुशोभित करते हुए कहा है।
जब युग बदले, भाषा बदली और विद्वान भी बदल गए। राजा बदले, प्रजा बदली और उनके देश भी बदल गए। सोच बदली और परम्पराएं भी बदल गईं। तब जो रूपक अलंकार थे, उन्हें कथा समझ लिया गया। अर्थ का अनर्थ हो गया। अधर्म के काम धर्म समझ लिए गए। राजा, प्रजा, और प्रकृति सबकी स्तुति होने लगी। सबको देवता समझ लिया गया। बाद के लोगों ने पुराना काव्य नये काव्य के साथ संकलित कर दिया तो देव की स्तुति के साथ देवताओं की स्तुति भी मिश्रित हो गई। नासमझी से उत्पन्न बहुदेववाद को चतुर लोगों ने मूर्तिपूजा का रूप देकर अपनी रोज़ी का जुगाड़ कर लिया। इस तरह धर्म का लोप हुआ और उसकी जगह अधर्म को दे दी गई। समाज के नीति-नियम यही अधर्मी बनाने लगे। इन्हीं अधर्मियों के कारण अत्याचार और युद्ध हुए और मानव जाति बर्बाद हो गई। दोष दिया गया निर्दोष धर्म को। विचारकों के मन को सवालों ने बेचैन किया तो धर्म का लोप करने वालों ने अध्यात्म से उन्हें भी शांत कर दिया। वे कहने लगे कि मन को विचारशून्य बना लो, परम शांति मिल जाएगी। तर्क त्याग दो, श्रद्धा उपलब्ध हो जाएगी।
¤ स्वामी दयानन्द जी का जन्म स्थान अज्ञात है
भारतीय समाज के हालात ऐसे थे, जब स्वामी दयानन्द जी ने जन्म लिया। स्वामी जी ने स्वकथित जीवनचरित्र में संवत् 1881 विक्रमी में गुजरात के मोरवी नगर में औदीच्य ब्राह्यण परिवार में अपना जन्म होना बताया है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की पुस्तक ‘आर्यपथिक लेखराम’ पृष्ठ 80 से ज्ञात होता है कि लेखराम जैसे श्रद्धालुओं ने सन 1892 ई. में मोरवी नगर के साथ टंकारा में भी स्वयं जाकर ढूंढा लेकिन वे उनका कुल तो क्या, जन्मस्थान तक न ढूंढ पाए। उन्होंने किस जाति में और कहां जन्म लिया?, इसे कोई नहीं जानता। वास्तव में उनका जन्म स्थान आज तक अज्ञात है।
नोट प्रकाशित पुस्तक में भी Lekharam पर लिखी पुस्तक के उस पृष्ठ को स्केन करके साथ में दिया गया है
--Link:-Unicode Book Part: Two------- -three------ and---Last
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