Wednesday, April 8, 2015

swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya-second-edition-Part-3

¤ स्वामी जी की मौत के विषय में झूठे प्रचार का उद्देश्य? ---Link:-Unicode Book Part: one-Two-and-Last
स्वामी जी की जीवनी लिखने वाले आर्य समाजी लेखक इस घटना को सत्य मानते हैं। उनके लेखन पर विश्वास करके हम भी स्वामी जी की मृत्यु का कारण उन्हें विष देना ही मानते थे लेकिन इंटरनेट पर हमारी इस पुस्तक का प्रथम संस्करण पढ़कर एक आर्य भाई ने कहा कि उन्हें विष देने की घटना झूठी है। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र’ नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया है। उनके जीवन की घटनाओं के विषय में वही ग्रन्थ प्रामाणिक है। उसमें यह घटना नहीं है।
दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला 2012 लगा तो हमने एक सहयोगी मित्र से आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र’ मंगवाकर पढ़ी तो वाक़ई उसमें रसोईये से विष देने के सम्बंध में स्वामी जी का कोई कथन नहीं मिला।
स्वामी जी ने अपने रसोईये से तो क्या किसी से भी नहीं कहा कि उन्हें किसी ने ज़हर दिया है। स्वामी जी के नाम पर आर्य समाजी प्रचारक बरसों से इतना बड़ा झूठ बोलकर आम लोगों को धोखा क्यों देते आ रहे हैं?
शायद स्वामी जी को लोगों की नज़रों में ‘शहीद’ का सम्मानित दर्जा दिलाने के लिए ही यह झूठ आम किया गया है। झूठी बात फैलाते समय उन्होंने यह क्यों नहीं सोचा कि जब कभी यह झूठ पकड़ा जाएगा तो लोगों में ‘आर्य समाज’ की विश्वसनीयता ही ख़त्म हो जाएगी?

¤ स्वामी जी बूढ़े को जवान करने वाली भस्म बनाना जानते थे
    आयुर्वेद के विशेड्ढज्ञ बताते हैं कि यदि किसी धातु की भस्म कच्ची रह जाए तो वह विड्ढ का काम करती है। लंबे समय तक इन दवाओं को लेने के नतीजे में भी उनकी मृत्यु की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृ. 79 पर पं. गंगाराम का बयान है कि
    ‘हमने कहा कि कृष्णाभ्रक हमने एक ब्रह्मचारी से लिया था जिसके एक चावल से वृद्ध को यौवनशक्ति प्राप्त होती है। सात दिन की सेवनविधि है। स्वामी जी कहने लगे कि कृष्णाभ्रक मेरे पास है, ले लेना और उन्होंने पुड़िया बांध कर दी।’
    इसी पुस्तक के पृष्ठ 80 पर स्वामी जी के द्वारा नित्य मालकंगनी के 5 दाने खाने और पारे की भस्म बनाने की विधि बताने का वर्णन भी आया है। जिससे सिद्ध होता है कि स्वामी दयानन्द जी शक्तिवर्धक भस्में और दवाएं खाया करते थे। इससे इस सम्भावना को बल मिलता है कि उन्होंने अमर होने के लिए स्वयं पर किसी अन्य आयुर्वेदिक दवा का परीक्षण किया होगा और उसके साइड इफ़ेक्ट से स्वामी जी बीमार पड़ गए होंगे। आखि़र वह अपने घर से अमर होने के लिए ही निकले थे।
    इस पहलू को आर्य समाजी प्रचारकों ने भी छिपाए रखा है कि स्वामी जी जब मथुरा में पढ़ रहे थे, तब से वह अभ्रक और पारे की भस्म बनाते आ रहे थे-
    ‘स्वामी जी कभी-कभी मथुरा में अभ्रक फूंकते और पारे की गोली भी बांधा करते थे।’ (म. दयानन्द स. का जीवन चरित्र, पृ. 57)

¤ भांड के समान स्तुति?
उनके इस प्रकार के स्वकथन विरूद्ध आचरण के बाद उनके इस उपदेश का क्या अर्थ रह जाता है-
‘‘नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिए-जैसे ‘न्यायकारी’ ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सबका यथावत न्याय करता है वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्‍य का कल्याण हो सकता है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादश., पृष्‍ठ 210)
‘इससे फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना है। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्‍ठ 120)
(12) जब न्यायकारी ईश्वर दुष्‍टों को क्षमा न करके दण्ड देता है तो दयानन्दजी ने ईश्वर का गुण ‘न्यायकारी’ स्वयं क्यों ग्रहण नहीं किया?
(13) अगर ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के विपरीत चलते हुए उसकी स्तुति आदि करना दयानन्द जी की द‘ष्टि में भांड के समान व्यर्थ चेष्‍टा है तो क्या दयानन्द जी की स्तुति व उपासना आदि भी व्यर्थ और निष्‍फल ही थी?
(14) यदि दयानन्द जी परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव जैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव नहीं बना पाये थे तो क्या वह परमेश्वर को प्राप्त हो पाए होंगे जबकि उनके पास ‘सीढ़ी’ भी नहीं थी?
  
¤ क्या स्वामी दयानन्द जी की अविद्या रूपी गाँठ कट गई थी?
     भिद्यते हृदयग्रिन्थरिद्दद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
     क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तिस्मनदृष्टि पराऽवरे  ।।1।।मुण्डक।।
जब इस जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती, सब संशय छिन्न होते और दुष्‍ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी उस परमात्मा जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है, उसमें निवास करता है। (सत्यार्थ प्रकाश, नवम0, पृष्ठ 171)
 ईश्वर का सामीप्य पाने के लिए यहां तीन बातों पर बल दिया गया है-
जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती है।
सब संशय छिन्न होते हैं।
सब दुष्‍ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं।
(15) क्या स्वामी दयानन्द जी ने दुष्‍टों को क्षमा करके और उन्हें तहसीलदार आदि अधिकारियों के दण्ड से छुड़वाकर दुष्‍टों का उत्साहवर्धन नहीं किया?
यदि यह सही है तो स्वामी दयानन्द जी में उपरोक्त तीसरे बिन्दु वाली विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती ।
(16) न ही उनके सब संशय छिन्न हो सके थे क्योंकि वह स्वयं ही एक सिद्धान्त निश्चित करते हैं और जब आर्य सभासद उसका पालन करते हैं तो फिर स्वयं ही उन्हें दुष्‍टों को दण्ड न देने की बात कहते हैं। यह उनके संशयग्रस्त होने का स्पष्‍ट उदाहरण है या नहीं?
(17) क्या यह अविद्या की बात न कही जाएगी कि एक आदमी सारे जगत को उस बात का उपदेश करे जिस पर न तो स्वयं उस को विश्वास हो और न ही उस पर आचरण करे जैसे कि उपरोक्त दुष्‍टों को क्षमा न करने का उपदेश करना और स्वयं लगातार क्षमा करते रहना?
   ¤ बड़े अपराधी को माफ़ी तो छोटे को सज़ा क्यों?
कोई आर्य समाजी भाई कह सकता है कि सन्यासी उदार होता है, इसलिए वह दुष्टों को क्षमा कर सकता है। स्वयं स्वामी जी ने भी अनूपशहर में अपने विषय में ऐसा कहा था लेकिन स्वामी जी सब दुष्टों को क्षमा नहीं करते थे। उनके जीवन में कई घटनाएं ऐसी मिलती हैं। जबकि उन्होंने दुष्टों को दण्ड दिया और दिलाया है।
    उनके साथ एक कल्लू कहार भरतपुर का रहने वाला, जिस पर स्वामी जी का बड़ा प्रेम और भरोसा था, वह कहार स्वामी जी का छः सात सौ रुपये का माल लेकर खिड़की से भाग गया। माल के चुराये जाने के विषय में रामानन्द, बिहारी, रामचन्द्र और देवदत्त आदि पर भी सन्देह था। स्वामी जी ने इनकी शिकायत अधिकारियों से की।
‘उनके बयान अधिकारियों द्वारा लिए गये, परन्तु वे जेलख़ाने नहीं भिजवाए गए। ऐसी ऐसी कार्यवाहियों के होने पर स्वामी जी का इन लोगों से ही नहीं प्रत्युत इस रियासत के मनुष्यों पर से विश्वास उठ गया और उस नगर से चले जाने का विचार किया।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.820)
(18) हत्या की अपेक्षा चोरी छोटा अपराध होता है। स्वामी जी ने बड़े अपराधी को माफ़ कर दिया और चोरी के मुल्ज़िम को बल्कि संदिग्ध व्यक्तियों को भी जेल भिजवाने की कोशिश की। क्या यह उनके संशयग्रस्त होने का प्रमाण नहीं है?
स्वामी जी के शिष्य गुसाईं बलदेव गिरी ने भी एक घटना का वर्णन किया है कि अहे उड़ेस ज़िला एटा का एक ठाकुर आकर स्वामी जी के बराबर बैठ गया। बलदेव जी ने उससे कहा कि तू अलग बैठ, स्वामी जी के बराबर बैठना तुझ जैसे गृहस्थियों का काम नहीं है। इसी बात पर दोनों में पहले तकरार हुई और फिर मारपीट हो गई। ठाकुर के साथ चार आदमी भी थे।
‘पहले के हाथ से जब लाठी छूट गई तो हमने लेकर सबके चूतड़ों पर दो-दो लगाई और ठाकुर का जूड़ा पकड़ कर गिरा दिया। इस पर वे सब फिसलते-फिसलते गंगा के कीचड़ में जा गिरे और फंस गए।...इस लड़ाई के पश्चात् हमको यह ध्यान आया कि कहीं ऐसा न हो कि स्वामी जी हमसे क्रोधित हो गये हों और हमारे भोजन को ग्रहण न करें परन्तु स्वामी जी ने हमारी ओर देखा और कहा-‘श्रृणु. हस्तप्रक्षालनं कृत्वा भोजनमानय’ अर्थात् सुनो, हाथ धोकर भोजन ले आओ। मैं भोजन ले गया। स्वामी जी ने भोजन किया और हमसे बहुत प्रसन्न हुए।’ (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.114)

¤ वेदों में तोप और बन्दूक़ें?
(19) यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह ‘वेद’ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे?
    इतिहासकार बताते हैं कि भारत में तोप मुग़ल और बन्दूक़ अंग्रेज़ लेकर आए। स्वामी जी ने बताया है कि वेद में तोप और बन्दूक़ का ज़िक्र शतघ्नी और भुशुण्डी के नाम से मिलता है। यह एक नई जानकारी है। स्वामी जी के अनुसार आर्यों ने सृष्टि के आदि में अर्थात आज से लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार वर्ष पहले ही तोप और बन्दूक़ें बना ली थीं। देखिए उनका वेदार्थ-
‘हे मनुष्यो! तुम लोग सब काल में उत्तम बल वाले हो। किन्तु तुम्हारे (आयुधा) अर्थात् आग्नेयास्त्रादि अस्त्र और (शतघ्नी) तोप (भुशुण्डी) बन्दूक, धनुषबाण और तलवार आदि शस्त्र सब स्थिर हों।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरस्तुति., पृ.114)
(20) क्या वास्तव में आर्य लोगों ने वेद पढ़कर तोप और बन्दूक़ का अविष्कार आज से लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार वर्ष पहले ही कर लिया था?

¤ क्या दयानन्द जी वेदों का वास्तविक अर्थ जानते थे?
स्वामी दयानन्द जी एक और वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
‘इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृष्‍ठ 107)
(21) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्‍य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
स्वामी जी के वेदार्थ को सही माना जाए तो वेद ईश्वरीय वचन सिद्ध नहीं होता या फिर इस मन्त्र का सही अर्थ कुछ और है और स्वामी जी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका ग़लत अर्थ निकाल लिया।

¤ सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों पर वेद और वैदिक आर्य?
इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्द जी ने यह कल्पना कर डाली है कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्‍यादि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी इन्हीं चारों वेदों का पाठ किया जा रहा है। उन्होंने अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
‘जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्‍य होंगे?’ (सत्यार्थ., अष्टम. पृ. 156)
(22) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा और अन्य ग्रहों पर मनुष्‍य आबाद हैं और वे वहां वेदपाठ और हवन कर रहे हैं?
(23) चन्द्रमा पर कई वैज्ञानिक जाकर लौट आए हैं। सेटेलाइट के ज़रिये चन्द्रमा
के हर हिस्से के फ़ोटो ले लिए गए हैं। वहां अभी तक तोप और बन्दूक़ बनाने वाली कोई फ़ैक्ट्री क्यों नहीं मिल पाई?
(24) क्या सूर्य पर वेदपाठी आर्यों के रहने और तोप और बन्दूक़ें रखने की बात कहना पौराणिकों से बड़ी गप्प मारना नहीं कहलाएगा?
    अतः सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आर्य समाजियों के पुराण सिद्ध होते हैं।

¤ क्या परमेश्वर भी कभी असफल हो सकता है?
‘परमेश्वर का कोई भी काम निष्‍प्रयोजन नहीं होता तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्‍यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है?’ (सत्यार्थ., अष्टम. पृ. 156)
(25) स्वामी जी ने परमेश्वर की सफलता को सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्रों पर मनुष्‍यादि के निवास पर निर्भर समझा है। इन लोकों में अभी तक किसी सभ्यता का पता नहीं चला है, तो क्या परमेश्वर को असफल और निष्‍प्रयोजन काम करने वाला समझ लिया जाये? या यह माना जाए कि स्वामी जी इन सब लोकों की उत्पत्ति से परमेश्वर के वास्तविक प्रयोजन को नहीं समझ पाए?
अतः ज्ञात हुआ कि स्वामी जी ईश्वर, जीव और प्रकृति के बारे में सही जानकारी नहीं रखते थे। वास्तव में स्वामी जी ने वेदों का अर्थ नहीं समझा बल्कि उनके मंत्रों में अपने अर्थ की कल्पना की है। जो वेदों के वास्तविक मन्तव्य को जानने समझने के बजाए उनके भावार्थ के नाम पर अपनी कल्पनाएं गढ़कर लोगों को गुमराह करे, उसे वेदों का शोधक कहना ग़लत है।

¤ स्वामी जी की कल्पना और सौर मण्डल
‘इसलिए एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ 156)
यह बात भी पूरी तरह गलत है। स्वामी जी ने सोच लिया कि जैसे पृथ्वी का केवल एक उपग्रह ‘चन्द्रमा’ है। इसी तरह अन्य ग्रहों का उपग्रह भी एक-एक ही होगा। The Wordsworth Encyclopedia 1995 के अनुसार ही मंगल के 2, नेप्च्यून के 8, बृहस्पति के 16 व शानि के 20 उपग्रह खोजे जा चुके थे। आधुनिक खोजों से इनकी संख्या में और भी इज़ाफा हो गया ।
सन् 2004 में अन्तरिक्षयान वायेजर ने दिखाया कि शनि के उपग्रह 31 से ज़्यादा हैं। (द टाइम्स ऑफ इण्डिया, अंक 2-07-04, मुखपृष्‍ठ)
इसके बाद की खोज से इनकी संख्या में और भी बढ़ोतरी हुई है। अंतरिक्ष अनुसंधानकर्ताओं ने ऐसे तारों का पता लगाया है जिनका कोई ग्रह या उपग्रह नहीं है।
PSR  19+16 नामक प्रणाली में एक दूसरे की परिक्रमा करते हुए दो न्यूट्रॉन तारे हैं।’ (समय का संक्षिप्त इतिहास, पृष्‍ठ 96, ले. स्टीफेन हॉकिंग संस्करण 2004, प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन प्रा. लि0, नई दिल्ली-2)
‘खगोलविदों ने ऐसी कई प्रणालियों का पता लगाया है, जिनमें दो तारे एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। जैसे CYGNUS X-1, सिग्नस एक्स-1’ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्‍ठ 100)
(26) वेदों में विज्ञान सिद्ध करने के लिए स्वामी जी ने जो नीति अपनाई है उससे वेदों के प्रति संदेह और अविश्वास ही उत्पन्न होता है। क्या इससे खुद स्वामी जी का विश्वास भी ख़त्म नहीं हो जाता है ?

¤ आकाश में सर्दी-गर्मी होती है, सर्दी से परमाणु जम जाते हैं, भाप से मिलकर किरण बलवाली होती है?
‘... क्योंकि आकाश के जिस देश में सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी की छाया रोकती है, उस देश में शीत भी अधिक होती है। ... फिर गर्मी के कम होने और शीतलता के अधिक होने से सब मूर्तिमान पदार्थो के परमाणु जम जाते हैं। उनको जमने से पुष्टि होती है और जब उनके बीच में सूर्य की तेजोरूप किरणें पड़ती हैं तो उनमें से भाप उठती है। उनके योग से किरण भी बलवाली होती है।’ (ऋग्वेदादिभाष्‍यभूमिका पृष्‍ठ 145 व 146)
(27) सर्दी-गर्मी धरती पर होती है आकाश में नहीं और वह भी पृथ्वी द्वारा सूर्य के प्रकाश को रोकने की वजह से नहीं होती। पृथ्वी की छाया भी किसी अन्य ग्रह पर नहीं पड़ती।
(28) और न ही सर्दी बढ़ने से सब चीज़ों के परमाणु जमते हैं। टुण्ड्रा प्रदेश की तेज़ सर्दी में भी सब चीज़ों के परमाणु नहीं जमते। पता नहीं परमाणु के सम्बन्ध में स्वामी जी की कल्पना क्या है?
(29) भाप से मिलकर प्रकाश को भला क्या बल मिलेगा?
(30) यह वेदों का कथन है या स्वयं स्वामी जी की कल्पना?

¤ सृष्टि संरचना की ग़लत कल्पना को वैदिक सिद्धान्त समझ बैठे स्वामी जी?
‘... सबसे सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात जो काटा नहीं जाता उसका नाम परमाणु, साठ परमाणुओं से मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उसका दूना होने से पृथ्वी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिलाकर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं।’ (सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम. पृ.152)
हरेक अणु में 60 परमाणु होते हैं। ऐसा कहना विज्ञान के विरुद्ध है।

¤ परमाणु टूटने के साथ ही स्वामी जी का दर्शन मिथ्या सिद्ध हो गया
परमाणु को अविभाज्य मानना भी ग़लत है। दरअसल प्राचीन काल से भारतीय दर्शन में परमाणु का न टूटना बताया गया है और स्वामी जी के काल तक परमाणु को तोड़ना संभव नहीं हुआ था। इसलिए वह परमाणु को अविभाज्य लिख गए हैं परन्तु अब परमाणु को तोड़ना संभव है। विदेशी वैज्ञानिकों ने अपने विज्ञान से परमाणु को तोड़ डाला। भारत के वैज्ञानिकों ने उनसे यह विज्ञान सीखा। आज भारत में कई ‘परमाणु रिएक्टर’ इसी सिद्वान्त के अनुसार ऊर्जा उत्पादन करते हैं। परमाणु के टूटने के बाद स्वामी जी का परमाणु विज्ञान व्यर्थ और कल्पना मात्र सिद्ध हुआ। दरअसल यह कोई वैदिक सिद्धान्त नहीं है बल्कि एक दार्शनिक मत है। विदेशी वैज्ञानिकों ने जैसे अविष्कार बिना वेद पढ़े ही कर दिए हैं, आर्य समाजियों को अपने गुरूकुलों में वेद पढ़कर उनसे बड़े अविष्कार कर दिखाने थे। वे ऐसा कुछ नहीं कर पाए, सिवाए दूसरों की मज़ाक़ उड़ाने और डींग हाँकने के। परमाणु टूट गया लेकिन फिर भी वे दर्शन की उन पुरानी मान्यताओं को नहीं छोड़ पाए, जिन्हें भारतीय वैज्ञानिकों ने त्याग दिया है।
आग, पानी, हवा और पृथ्वी की संरचना का वर्णन भी विज्ञान विरूद्ध है। उदाहरणार्थ चार द्वयणुक अर्थात 8 अणुओं के मिलने से नहीं बल्कि हाइड्रोजन के 2 और ऑक्सीजन का 1 अणु, कुल 3 अणुओं के मिलने से जल बनता है। इसी तरह पृथ्वी भी पांच द्वयणुक से नहीं बनी है बल्कि कैल्शियम, कार्बन, मैग्नीज़ आदि बहुत से तत्वों से बनी है और हरेक तत्व की आण्विक संरचना अलग-अलग है। वायु के विषय में भी स्वामी जी का मत ग़लत है। वायु भी दो अणुओ से नहीं बनती। जो बात स्वामी जी ने जैनियों के विषय में कही है। वह स्वयं उन पर ही चरितार्थ हो रही है। देखिए-
(31) ‘स्थूल वात का भी यथावत ज्ञान नहीं तो परम सूक्ष्म सृष्टिविद्या का बोध कैसे हो सकता है?’ (सत्याथ प्रकाश, द्वादशसमुल्लास, पृष्ठ 294)

¤ अग्नि के विषय में भी स्वामी जी का मत ग़लत है
अग्नि 3 द्वयणुक अर्थात 6 अणुओं के मिलने से नहीं बनती। जैसा कि स्वामी ने कहा है। उन्होंने जीवन भर हवन किया लेकिन कभी 6 अणु मिलाकर आग नहीं जलाई और न ही कोई आर्य विद्वान आज ऐसा कर सकता है।
विज्ञान के अनुसार अग्नि दहनशील पदार्थों का तीव्र आक्सीकरण है। जिससे ऊष्मा, प्रकाश और कार्बन डाई आॅक्साईड जैसे अन्य अनेक रासायनिक प्रतिकारक उत्पाद उत्पन्न होते हैं। अग्नि को बुझाना हो तो ईंधन और आक्सीजन में से किसी एक को अलग कर दिया जाता है।
यदि स्वामी जी के मत को मान लिया जाता तो देश की सारी उन्नति ठप्प हो जाती। उनके विचार आज प्रासंगिक नहीं रह गये हैं। समय ने उन्हें रद्द कर दिया है। जिन लोगों को म्लेच्छ कहकर हेय समझा गया, देश के वैज्ञानिकों ने उन्हीं का अनुकरण करके उन्नति की है।
(32) स्वामी जी स्थूल अग्नि के विषय में सही ज्ञान नहीं रखते थे। ऐसे में ईश्वर और आत्मा जैसे सूक्ष्म तत्व के विषय में उनकी जानकारी का विश्वास कैसे किया जा सकता है?
(33) यदि प्रकृति के विषय में अभारतीयों का ज्ञान सत्य और श्रेष्‍ठ हो सकता है तो फिर ईश्वर और जीव के विषय में क्यों नहीं हो सकता?

¤ सब एक माता पिता की सन्तान हैं
सत्य की प्राप्ति के लिए शठवृत्ति, भेदभाव और अहंकार का त्याग ज़रूरी है। वैसे भी सब मनु की सन्तान हैं- ‘जनं मनुजातं’ (ऋग्वेद 1,45,1)
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् धरती के सब मनुष्‍य एक परिवार हैं । विभिन्न नस्लों के डीएनए पर रिसर्च करने के बाद आधुनिक वैज्ञानिकों ने धरती के सभी मनुष्यों में एक ही जोड़े का डीएनए पाया है अर्थात सब मनुष्य एक ही स्त्री-पुरूड्ढ की सन्तान हैं, जैसा कि इसलाम कहता है।
    मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा ।
     सम्यग्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ।।
‘भाई, भाई से और बहन, बहन से द्वेष न करे। एक मन और गति वाले होकर मंगलमय बात करें।’ (अथर्ववेद 3,30,3)
वैमनस्य और नफ़रत फैलाना छोड़कर सद्भावना प्रेम, शांति, एकता, ज्ञान और उन्नति का माहौल बनाना चाहिए। अन्य देशवासी भाई बहनों के पास भी ईश्वरीय ज्ञान है। उनसे ज्ञान प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए। यही सर्वहितकारी और मंगलमय बात है।

¤ वेद में क्यों नहीं मिलता स्वामी जी का बताया वेदमंत्र?
स्वामी जी की यह कल्पना भी ग़लत निकली कि
‘आदि में अनेक अर्थात् सैकड़ों सहस्त्रों मनुष्य उत्पन्न हुए। और सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता है कि मनुष्य अनेक माँ-बाप की सन्तान हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.150)
...और वह प्रमाण भी झूठा निकला, जो इस मान्यता की पुष्टि में उन्होंने इससे पहले लिखा है कि
‘‘क्योंकि ‘मनुष्या ऋड्ढयश्च ये। ततो मनुष्या अजायन्त’ यह यजुर्वेद में लिखा है।’’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.150)

आश्चर्यजनक किन्तु सत्य यह है कि उपरोक्त मंत्र यजुर्वेद में है ही नहीं। स्वामी जी ने एक ऐसी मान्यता का और एक ऐसे मंत्र का प्रचार कर दिया जो कि वेद में नहीं है। आर्य समाजी विद्वान भी ढूंढ ढूंढ कर थक गए। उन्हें भी वेद में यह प्रमाण नहीं मिला। उन्हें स्वामी जी की रचनाओं को युद्ध करते हुए 140 वर्ष  से ज़्यादा हो गए लेकिन उनकी रचनाएं फिर भी युद्ध नहीं हो पाईं। उपरोक्त अशुद्धि आज भी सत्यार्थप्रकाश में विद्यमान है। जो कि वेद विषय में स्वामी जी की विश्वसनीयता समाप्त करने के लिए काफ़ी है।
(34) या तो स्वामी जी को यही पता न था कि यह मंत्र वेद का नहीं है या वह जान बूझ कर वेद के नाम पर झूठे प्रमाण दे दिया करते थे जैसा कि बहुत से गुरुओं की आदत है?

¤ वेदविरुद्ध पोपलीला चलाने वाला नास्तिक होता है
स्वामी जी कहते हैं-
    ‘नास्तिक वह होता है जो वेद ईश्वर की आज्ञा विरुद्ध पोपलीला चलावे।’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टम., पृ.232)
    स्वामी दयानन्द जी के सिद्धान्त पर स्वयं उनकी मान्यताओं को परखा जाए तो-
(35) क्या स्वयं उन की मान्यताएं भी वेद ईश्वर की आज्ञा विरूद्ध पोपलीला नहीं ठहरतीं?
(36) स्वामी जी क्या सिद्ध होते हैं, आस्तिक या नास्तिक?
    ये सवाल आप अपनी आत्मा से पूछिये, वहां से आपको तुरन्त सही जवाब मिल जाएगा।

¤ ईश्वरीय ग्रन्थ में झूठ नहीं होता
‘जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरोक्त, अन्य नहीं। और जिसमें सृष्टिक्रम प्रत्यक्षादि प्रमाण आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरूद्ध कथन न हो वह ईश्वरोक्त। जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्‍ठ 135)
(37) क्या वाक़ई वेदों में सृष्टिक्रम प्रत्यक्षादि प्रमाण के अनुकूल निर्भ्रम ज्ञान है? जो कसौटी ख़ुद स्वामीजी ने निश्चित की है, क्या वेद उस पर पूरे उतरते हैं?

¤ सूर्य किसी लोक या केन्द्र के चारों ओर नहीं घूमता
स्वामी जी के वेदार्थ का एक और नमूना देख लीजिए-
‘जो सविता अर्थात सूर्य ... अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता।’
  (यजुर्वेद, अ033, मं. 43/सत्यार्थप्रकाश, अष्‍टम. पृ. 155)
(38) यह बात भी सृष्टि नियम के विरुद्ध है। एक बच्चा भी आज यह जानता है कि सूर्य न केवल अपनी धुरी पर बल्कि किसी केन्द्र के चारों ओर भी पूरे सौर मण्डल सहित चक्कर लगा रहा है। तब सृष्टिकर्ता परमेश्वर अपनी वाणी वेद में असत्य बात क्यों कहेगा? देखिये-
‘सूर्य अपनी धुरी पर 27 दिन में एक चक्कर पूरा करता है।’
 (हमारा भूमण्डल, कक्षा 6, भाग 1, पृष्‍ठ 9, बेसिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश, लेखक- अंजु गौतम आदि)
‘तुम्हें यह जानकर बड़ा आश्चर्य होगा कि हमारा सूर्य बड़ी तेज़ी से चक्कर लगाते हुए लगभग 25 करोड़ वर्ष में अपनी आकाशगंगा की एक परिक्रमा पूरी करता है।’ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्‍ठ 6)
(39) स्वामी जी ने सायण, उव्वट और महीधर आदि विद्वानों को भांड, धूर्त आदि अशोभनीय शब्द कहे और उनके वेदभाष्य को भ्रष्‍ट बताया। उन्होंने केवल अपने द्वारा रचित वेदार्थ को ही ठीक बताया है। स्वामी जी वेद को ईश्वरोक्त मानते थे न कि ऋषियों की रचना। स्वामी जी ने ईश्वरोक्त ग्रन्थ के जो लक्षण बताए हैं, क्या वे लक्षण वेद में पाए जाते हैं?

¤ वेदों का काल जानने में भी असफल रहे स्वामी जी
        वेदों का सही अर्थ न जानने के कारण स्वामी दयानंद जी यह भी नहीं जान पाए कि वेदों की रचना कब और कैसे हुई?,
    सही जानकारी के अभाव में उन्होंने यह कल्पना कर ली कि चारों वेद परमेश्वर की वाणी हैं। परमेश्वर ने सृष्टि के आरंभ में एक एक ऋषि के अंतःकरण में एक एक वेद का प्रकाश किया। अपनी इस कल्पना की पुष्टि में उन्हें कोई प्रमाण न मिला। तब उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और उसका अर्थ अपनी कल्पना से यह बनाया-
    ‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।शत.।।
    प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्‍ठ 135)
इस श्लोक में ‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा’ वेद देने की बात नहीं आई है। स्वामी जी ने अपनी कल्पना को इस श्लोक में आरोपित करके यह अर्थ निकाला है।
इस श्लोक में चैथे ऋषि अंगिरा को एक वेद मिलने की बात नहीं आई है। यह भी स्वामी जी की कल्पना है।
    जो बात इस श्लोक में कही गई है। वह स्वामी जी ने बताई नहीं है। इस श्लोक में अग्नि का संबंध ऋग्वेद से, यजुर्वेद का संबंध वायु से और सामवेद का संबंध सूर्य से दर्शाया गया है। यह संबंध स्वामी जी ने अपने अनुवाद या भावार्थ में दर्शाया ही नहीं।

¤ स्वामी जी सृष्टि की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे
‘चारों वेद सृष्टि के आदि में मिले।’ स्वामी जी ने बिना किसी प्रमाण के केवल यह कल्पना ही नहीं की बल्कि उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्तिविषयः, पृष्ठ 16 पर यह भी निश्चित कर दिया कि वेदों और जगत की उत्पत्ति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष हो चुके हैं।
    स्वामी जी इस काल गणना को बिल्कुल ठीक बताते हुए कहते हैं-
    ‘...आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 17)
    ‘जो वार्षिक पंचांग बनते जाते हैं इनमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 19)
    यह बात सृष्टि विज्ञान के बिल्कुल विरुद्ध है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि हमारी आकाशगंगा के सबसे पुराने सितारे की उम्र 13.2 अरब वर्ष है। दूसरी आकाशगंगाओं में इससे भी ज़्यादा प्राचीन सृष्टियां मौजूद हैं। वैज्ञानिकों ने यह भी बताया है कि हमारी पृथ्वी को बने हुए लगभग 4.54 अरब वर्ष हो चुके हैं। ऐसे में सृष्टि संवत के आधार पर इस सृष्टि को एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले उत्पन्न हुआ मानना केवल स्वामी जी की कोरी कल्पना है। जिसका कोई प्रमाण नहीं है।
  
¤ आर्य ज्योतिषियों का फलित भी ग़लत और गणित भी ग़लत
स्वामी जी ने ज्योतिष के फलित को ग़लत और उसके गणित को सही माना है। वह ज्योतिष की काल गणना पर विश्वास करके धोखा खा गए। बाद के वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला कि जगत और मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में आर्य ज्योतिषियों की काल गणना बिल्कुल ग़लत है। स्वामी जी कह रहे हैं कि आर्यों ने एक एक क्षण का हिसाब ठीक से सुरक्षित रखा है लेकिन हक़ीक़त यह है कि आर्यों ने सृष्टि की उत्पत्ति की जो काल गणना की है, उसमें 11 अरब वर्ष  से ज़्यादा की गड़बड़ है।
    वास्तव में स्वामी जी को पता नहीं था कि सितारे और ग्रह कैसे बनते हैं और उन्हें बनने में कितने अरब वर्ष का काल लगता है ?, अपनी ओर से उन्होंने लंबी से लंबी कल्पना कर ली लेकिन सृष्टि की आयु उससे भी कई गुना ज़्यादा निकली और उनका मत झूठा सिद्ध हो गया।

¤ स्वामी जी मनुष्य की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे
सृष्टि संवत के आधार पर ही स्वामी जी ने मनुष्य की उत्पत्ति भी लगभग एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पूर्व मान ली। आधुनिक खोजों के बाद आज यह जानना संभव है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी की जलवायु कैसी थी और यह भी कि उस वातावरण में मनुष्य जीवित रह सकता था या नहीं ?
    देखिए वैज्ञानिक तथ्यों को प्रदर्शित करता एक चित्र, जिसमें वैज्ञानिकों ने दर्शाया गया है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले धरती पर मनुष्य नहीं पाया जाता था।
   
¤¤प्रकाशित पुस्‍तक में इस स्‍थान पर encyclopedia की ग्राफिक दी गयी है¤¤¤

¤ वेदों की रचना के समय का निर्णय वेदों के आधार पर
वास्तव में वेद स्वयं बताते हैं कि वे कब रचे गए ?
    वेदों के अध्ययन से पता चलता है कि जब मनुष्य ने वेदों को प्राप्त किया, तब असुर व दस्यु आदि वर्तमान थे और वे आर्यों से युद्ध करते रहते थे। इनका वर्णन वेदों में आया है। स्वामी जी ने मनु स्मृति के आधार पर बताया है कि
    ‘आर्य्यवर्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईरान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम दस्यु, म्लेच्छ और असुर है’ (सत्यार्थप्रकाश, अष्टमसमुल्लास, पृष्ठ 152)
    अतः सिद्ध होता है कि जब ईरान तथा पश्चिमी देशों में मनुष्य निवास करने लगे, उसके बाद मनुष्यों को वेद प्राप्त हुए, उससे पहले नहीं। एक नगर को बसने में ही कई सौ वर्ष लग जाते हैं। किसी एक जगह पैदा होने के बाद मनुष्यों को इतनी दूर दूर जाने में और इतने सारे देश बसाने में कितने हज़ार वर्ष लग गए होंगे।
    स्वामी जी स्वयं कहते हैं-
    ‘एतद्देशस्य प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।मनु.।।
सृष्टि से ले के पांच सहò वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देश में माण्डलिक अर्थात् छोटे छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव पाण्डव पर्यन्त यहां के राज्य और राजशासन में भूगोल के सब राजा और प्रजा चले थे क्योंकि यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है उसका प्रमाण है।’ सत्यार्थप्रकाश,एकादशसमुल्लास,पृ.187)
    स्वामी जी के कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि जिस समय मनुष्य को वेद और मनुस्मृति मिले, उस समय सारी पृथ्वी पर बहुत से देश और राजा थे। सारी धरती पर प्रजा का पालन हो रहा था। जिस काल में यह सब हो रहा था, उसे सृष्टि का आदि कहना ग़लत है। अतः वेदों की भांति मनुस्मृति का भी सृष्टि के आदि में होने की बात कहना ग़लत है।
     इससे पता चलता है कि वेद मनुष्य को सृष्टि के आदि में नहीं मिले वरन तब मिले जबकि दुनिया में बहुत से देश और बहुत सी सभ्यताएं बन चुकी थीं। उनकी भाषाएं, संस्कृतियां और मान्यताएं भी आर्यों से अलग थीं। उनके पास राजा, सेना और हथियार आदि सब कुछ था और उन्होंने यह सब उन्नति वेद के आने से पहले ही कर ली थी। वेद के दुनिया में आने से पहले ही बहुत तरह की विद्या का प्रकाश असुर आदि मनुष्यों में हो चुका था। जिनका ज़िक्र वेदों में मिलता है।
    अतः स्वामी दयानंद जी का यह कहना भी ग़लत है कि
    ‘यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्य्यवर्त देश ही से प्रचारित हुए हैं।‘ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ 189)
    सारी दुनिया में विद्या यहां से फैलती तो वेद और मनुस्मृति भी पूरी दुनिया में फैल चुके होते और संस्कृत भाषा विश्व भर में बोली जाती, जैसे कि आज अंग्रेज़ी बोली जाती है। वर्ण व्यवस्था और छूतछात भी दुनिया में फैली हुई मिलती लेकिन दुनिया के सब देशों में इन सबका कहीं पता नहीं मिलता। यहां से विद्या दुनिया में तो क्या फैलती, यहां भी न फैल पाई। वेद-उपनिषदों को दुनिया के सामने मुसलमान और ईसाई भाई लाए। दाराशिकोह ने मजमउल-बहरैन के नाम से फ़ारसी में उपनिषदों का अनुवाद करवाया। तब दुनिया ने उन्हें पढ़ा। मैक्समूलर ने दुनिया को वेदों से परिचित करवाया। उसे भी भारत में बड़ी परेशानियां झेलने और काफ़ी माल ख़र्च करने के बाद वेद मिले। स्वयं स्वामी जी को भी भारत में वेद न मिले, जर्मनी से मंगाने पड़े।

¤ बहुत अधिक उन्नति के बाद मनुष्य को वेद मिले
वेदों के अध्ययन से यह पता चलता है कि आय्र्यावत्र्त देश के मनुष्य बहुत अधिक उन्नति कर चुके थे। वे संस्कृत भाषा बोलने लगे थे। वे व्याकरण और स्वरों को जानते थे। वे काव्य को समझने लगे थे। उन्होंने रथ बनाना सीख लिया था। उन्होंने घोड़े व गाय आदि पालना सीख लिया था। उन्होंने गाय आदि का दूध निकालने व उससे घी निकालने की तकनीक विकसित कर ली थी। वे हवन करते थे। उन्होंने मुर्दों को जलाना भी शुरू कर दिया था। इसका मतलब यह है कि अग्नि की खोज, पहिये के अविष्कार और घी के निर्माण के बाद ही आर्यों ने वेदों को प्राप्त किया, उससे पहले नहीं अन्यथा वे वैदिक संस्कारों को संपन्न न कर पाते। जिनका वर्णन वेदों में मिलता है।
    वेद मिलने से पहले ही आर्य क़िले व बाँध बनाना जान गए थे। उन्होंने खेती करना व व्यापार करना भी सीख लिया था। उन्होंने सोने के सिक्के बनाना सीख लिया था। उनका व्यापार मुद्रा विनिमय के स्तर तक आ पहुंचा था। वे लोग अपना राजा चुनते थे। वे हर तरह से समृद्ध नगरों में रहते थे। उन्होंने लकड़ी, पत्थर और धातुओं से हथियार बनाने और उन्हें चलाने की कला भी सीख ली थी। उनकी अपनी सेना थी। उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी थे। वे युद्ध में असुर आदि शत्रुओं को मार डालते थे। वे बीमारियों की चिकित्सा करने में प्रवीण थे। उन्हें दवाओं का अच्छा ज्ञान था। वे भौतिक व रसायन विज्ञान में प्रवीण थे। इन बातों को सनातनी और आर्य विद्वान दोनों ही मानते हैं।
स्वामी दयानंद जी के अनुसार तो वेदों में विमान और तार विद्या (टेलीग्राम) का भी वर्णन है। (देखें ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नौविमानादिविद्याविषयः, पृष्ठ 149 व तारविद्यामूलविषयः, पृष्ठ 155)
इसका अर्थ यह हुआ कि जिस समय आर्यों को वेद मिले उस समय तक वे विमान, टेलीग्राम यंत्र और बिजली बनाने के साद्दन तैयार कर चुके थे। इस तरह वेदों को प्राप्त करने वाली आर्य सभ्यता एक अति उन्नत सभ्यता के रूप में सामने आती है।
स्वामी जी के अनुसार परमेश्वर ने वेद में आर्यों की तोप और बंदूक़ों को भी स्थिर रहने का आशीर्वाद दिया है।
‘हे मनुष्यो! तुम लोग सब काल में उत्तम बल वाले हो। किन्तु तुम्हारे (आयुधा) अर्थात् आग्नेयास्त्रादि अस्त्र और (शतघ्नी) तोप (भुशुण्डी) बन्दूक, धनुषबाण और तलवार आदि शस्त्र सब स्थिर हों।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरस्तुति., पृ.114)
इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय ईश्वर ने वेद में आर्यों को अपना आशीर्वाद दिया। उस समय आर्यों की सेना के पास तोप और बंदूक़ें मौजूद थीं। इतनी उन्नति सौ दो सौ वर्ष में संभव नहीं है। इसके लिए हज़ारों वर्ष का समय चाहिए। अतः मनुष्य की उत्पत्ति के हज़ारों वर्ष बाद मनुष्य को वेद प्राप्त होना सिद्ध होता है न कि सृष्टि के आदि में। जैसा कि स्वामी जी की मान्यता है।
वेद अपना काल स्वयं ही बता रहे हैं लेकिन उसे समझने में स्वामी दयानंद जी पूरी तरह असफल रहे। वास्तव में स्वामी जी न वेदों का काल समझ पाए और न ही वास्तविक वेदार्थ। स्वामी जी वेदों का वास्तविक काल और उनका अर्थ नहीं जानते थे लेकिन फिर भी उन्होंने यह दावा किया है कि
‘यह भाष्य प्राचीन आचाय्र्यों के भाष्यों के अनुकूल बनाया जाता है। परन्तु जो रावण, उवट, सायण और महीधर आदि ने भाष्य बनाये हैं, वे सब मूलमन्त्र और ऋषिकृत व्याख्यानों से विरुद्ध हैं। मैं वैसा भाष्य नहीं बनाता।’
‘इस में कोई बात अप्रमाण व अपनी रीति से नहीं लिखी जाती।’
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, भाष्यकरणशंकासमाधान विषयः, पृष्ठ 251)

(40) स्वामी जी का दावा ग़लत था। उनके वेदार्थ में ग़लतियाँ देखने वाले वेदों को ईश्वर की वाणी कैसे मान पाएंगे?

¤ हम वेद का आदर करते हैं
    हम वेद का आदर करते हैं क्योंकि उसमें हमारे मनीषी पूर्वजों का इतिहास और चिंतन सुरक्षित है। आधुनिक वैज्ञानिक खोजों ने स्वामी दयानन्द जी के वेदार्थ को ग़लत सिद्ध कर दिया है। उनकी ग़लत दार्शनिक मान्यताओं को नकारे बिना वेदों का वास्तविक अर्थ जानना संभव नहीं है।

¤ वेद का सच्चा अर्थ जानने का फल
    स्वयं स्वामी जी ने भी वेद का अर्थ जानने वाले का यह लक्षण बताया है कि वह सब दुःखों से रहित हो कर मोक्ष सुख को प्राप्त होता है। देखिए-
    ‘(स्थाणु0) जो मनुष्य वेदों को पढ़ के उन के अर्थ नहीं जानता, वह उनके सुख को न पाकर भार उठाने वाले वृक्ष के समान है, जो कि अपने फल फूल डाली आदि को बिना गुणबोध के उठा रहे हैं। किन्तु जैसे उनके सुख को भोगने वाला कोई दूसरा भाग्यवान् मनुष्य होता है, वैसे ही पाठ के पढ़नेवाले भी परिश्रमरूप भार को तो उठाते हैं, परन्तु उनके अर्थज्ञान से आनन्दरूप फल को नहीं भोग सकते। (योऽर्थज्ञः0) और जो अर्थ का जानने वाला है, वह अधर्म से बचकर, धर्मात्मा होके, जन्म मरणरूप दुःख का त्याग करके, संपूर्ण सुख को प्राप्त होता है। क्योंकि जो ज्ञान से पवित्रात्मा होता है, वह (नाकमेति) सर्वदुःख रहित होके मोक्षसुख को प्राप्त होता है। इसी कारण वेदादि शास्त्रों को अर्थज्ञानसहित पढ़ना चाहिए।’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पठनपाठनविषयः, पृष्ठ 247)
    जब एक पाठक स्वामी जी को उन्हीं की बताई कसौटी पर परखकर देखता है तो वह पाता है कि
स्वामी जी को न तो संपूर्ण सुख प्राप्त हुआ,
न ही उनके सब दुख दूर हुए और
न ही उन्हें मोक्षसुख प्राप्त हुआ।
इस तरह एक सच्चे वेदज्ञानी के ये लक्षण स्वामी दयानन्द जी में नहीं मिलते। अपने ही वेदार्थ की कसौटी पर भी वह खरे नहीं उतरते।

¤ स्वामी जी की प्रार्थना क्यों पूरी नहीं हुई?
    स्वामी जी ने अपना वेदभाष्य आरंभ करने से पहले परमेश्वर से इन शब्दों में प्रार्थना की थी-
    ‘और आपकी कृपा के सहाय से सब विघ्न हम से दूर रहें कि जिससे इस वेदभाष्य के करने का हमारा अनुष्ठान सुख से पूरा हो। इस अनुष्ठान में हमारे शरीर में आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामथ्र्य से हमको दीजिए, जिस कृपा के सामथ्र्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आपके बनाए वेद हैं उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें। सो यह वेदभाष्य आपकी कृपा से संपूर्ण हो के सब मनुष्यों का सदा उपकार करने वाला हो’
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरप्रार्थनाविषय, पृष्ठ 5)
1. ईश्वर ने स्वामी जी की यह प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
2. उनका वेदभाष्य सुख से तो क्या दुख के साथ भी पूरा नहीं हुआ।
3. इस अनुष्ठान में लगने के बाद उन्हें आरोग्य आदि भी नहीं मिला, उल्टे ईश्वर ने उन्हें खाट पकड़ा दी और उनके प्राण ले लिए।
4. वह और उनके शिष्य स्वामी जी की मान्यतानुसार वेद के यथार्थ अर्थ का सुख से विधान न कर सके।
5. ईश्वर की कृपा न होने से उनके द्वारा वेदभाष्य संपूर्ण न हुआ। जिसकी प्रार्थना स्वामी जी ने की थी।
इसका कारण स्वामी जी की मान्यताओं में ढूंढने की कोशिश की गई तो यह लिखा हुआ मिलता है-
    ‘देवास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
    न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्।।मनु.।।
    जो दुष्टाचारी अजितेन्द्रिय पुरूड्ढ है उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास, पृ.34)

¤ वास्तव में वेद कब और कैसे बने?
    वेद के बारे में स्वामी दयानन्द जी का विचार ग़लत सिद्ध हो जाने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के विषय में सनातनी आचार्यों का मत सही है कि सबसे पहले विश्वामित्र के अन्तःकरण में गायत्री छंद में एक मंत्र की स्फुरणा हुई। जिसे गायत्री मंत्र कहा जाता है। यह पहला काव्य था। विश्वामित्र ने यह काव्य सबसे पहले ब्रह्मा जी को सुनाया। जिनके निर्देशन में वह आदि पुष्कर तीर्थ में साधना कर रहे थे। उन्होंने इसमें अ,उ,म (ओं) और 3 व्याहतियाँ ‘भूर्भुवः स्वः’ जोड़ दीं। विश्वामित्र ने आदि पुष्कर तीर्थ से लौट कर यह काव्य दूसरों को सुनाया तो उन्हें यह अच्छा लगा। दूसरे विद्वानों ने भी गायत्री छंद में मंत्र बनाना सीख लिया। इस तरह ऋचा (वेदमंत्र) की रचना का आरम्भ हुआ। ऋचा रचने वाले को ऋषि कहा गया। वेद का अर्थ ज्ञान और विचार है। जिस ऋषि को जिस विषय का ज्ञान था या जो विचार किया, उसने उसी को छंद में कहा है।
    गायत्री छंद में 3 पाद होते हैं और हरेक पाद में 8 अक्षर होते हैं। इस तरह तीन पाद में कुल 24 अक्षर होते हैं। यह दूसरे मंत्रों से पहले आया और इसी के आधार पर समय के साथ ऋषियों ने मात्राएं और पद बढ़ाकर नए नए छंदों का निर्माण किया। इसलिए इसे वेदमाता भी कहा जाता है।
    ‘‘अक्षरानुबंध के कारण ये अलग अलग छंद कैसे निर्माण हुए होंगे, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’ यह आर्ष ऋग्मंत्र। इसके अक्षर 24 और चरण तीन। सबसे पहली यह स्तुप् अर्थात् स्तुति करने वाली ऋचा। यह कहने में त्रिचरण होने से विषम है। इसमें इसी प्रकार का अष्टाक्षरी चरण जोड़ने से छंद होता है अनुष्टुप्। यह दूसरे क्रमांक से निर्माण हुआ। इसका नाम ही यह सुझाता है कि यह स्तुप् के पश्चात् आया। इसके बाद निर्माण हुआ त्रिष्टुप्। अनुष्टुप् के चार चरण होने के कारण वह कहने में सम लगता है। इसी से उसके पश्चात् जो छंद बने वे प्रायः 4 चरणों के हैं। 32 अक्षर जब एक समूची कल्पना ग्रंथित करने के लिए अपर्याप्त पाये गये। तब 11 अक्षरों का एक एक चरण, ऐसे 44 अक्षरों का एक नया छंद बनाया गया। यह तीसरा छंद है, यह इसके त्रिष्टुप्, नाम में जो ‘त्रि‘ शब्द आया है, उस पर से स्पष्ट होता है। अनुष्टुप् के चार चरणों में अष्टाक्षरी एक और चरण जोड़ें तो बनती है, पंचदा पंक्ति। इन्हीं चालीस अक्षरों का चार चरणों में विभाजन किया जावे तो होगा विराट्। इसी प्रकार से छंद बढ़ते गये और उनका विकास होता गया। गायत्री पहला छंद होते हुए भी विषमता के कारण इतना कविप्रिय नहीं हुआ। अनुष्टुप् छंद वेद वाङ्मय के पश्चात् जो संस्कृत वाङ्मय निर्माण हुआ उसमें यद्यपि आधिक्य से पाया जाता है, तथापि वैदिक छंदवाङ्मय अधिक मात्रा में त्रिष्टुप् छंद में। छंदों की यह संख्या चार चार अक्षरों से बढ़ती हुई गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप्, बृहती, विराट् या पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिजगती, ्यक्करी, अतिशक्करी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति और अतिधृति इस अंतिम 76 अक्षरों के छंद तक गई। किंतु अधिकतर रचना हुई गायत्री, त्रिष्टुप और जगती इन तीन ही छंदों में। यह बात ऊपर दी हुई तालिका से स्पष्ट ही है। ये सारे के सारे छंद इसी क्रम से निर्माण हुए होंगे। क्रम बदलने पर भी अति उपसर्ग से युक्त अति-जगती, शक्करी, अतिशक्करी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति और अतिधृति ये नाम ही इनकी निर्मिति जगती, शक्करी, अष्टि, तथा धृति के पश्चात हुई, इस बात को प्रमाणित करते हैं।’’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 13 व 14, लेखक ः  प्रा.ह.रा.दिवेकर, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के लिये मोतीलाल बनारसीदास बंगलोरोड, जवाहर नगर, दिल्ली-7 द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण 1970)
    इस पुस्तक में ‘प्रारम्भिक दो शब्द’ लिखते हुए जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर के कुलपति श्री सी. शा. भांडारकर लिखते हैं-
    ‘जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के द्वारा, ग्वालियर के एक तपे हुए संस्कृत पंडित की यह साहित्यकृति, प्रकाश में लाते हुए, मुझे अत्यंत आनंद होता है। इसके लेखक वय, विद्या तथा ज्ञान तीनों दृष्टियों से वृद्ध व्यक्ति हैं। जिन्होंने साठ वर्षों  से अधिक काल तक वेदों का प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों दृष्टियों से अभ्यास किया है और आज तक भी जिनका अभ्यास चल ही रहा है। ऐसे लेखक ने इस ग्रंथ में ऋग्वेद के 1028 सूक्तों का कालक्रमानुसार दर्शन कराया है। ...लेखक के मतानुसार सारे ही ऋग्वेद की रचना महाभारत युद्ध के पूर्व साठ पीढ़ियों में हुई है।’
    बहुत से ऋषियों ने बहुत से विड्ढयों का विचार किया और बहुत से मंत्रों की रचना की। इन सब मंत्रों को संकलित किया गया तो संहिता बन गई। इसीलिए वेद को संहिता भी कहा जाता है। यह काम वेद व्यास ने किया।
    ‘इसने गद्य, पद्य या गान यह विभाजक लक्षण न मान तत्कालीन यज्ञ-पद्धति के अनुसार अध्वर्यु के लिए उपयुक्त मंत्र-वे गद्य रूप हों या पद्य रूप-अलग निकाले, उद्गाता के लिए आवश्यक जो भाग था-वह पाठ रूप हो या गान रूप-उसे पृथक किया और शेष जो पद्य वाङ्मय तब तक निर्मित हुआ था उसे एकत्रित किया। ये ही आज की यजुर्वेद, सामवेद तथा ऋग्वेद की संहिताएं हैं। कृष्ण द्वैपायन-जिन्हें आगे चलकर इसी कारण वेद व्यास कहने लगे-के पश्चात इन संहिताओं पर नया संस्कार कोई नहीं हुआ।’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 11)
    ‘ये सारे सूक्त प्रधानतः देवों की स्तुति करने हेतु से ही निर्माण हुए। और इसीलिए ‘या तेनोच्यते सा देवता‘ यह लक्षण रूढ़ हुआ। ये वैदिक देव भी अनेक हैं। ...प्रथम सूर्य, अग्नि, वायु इत्यादि प्रकृतिस्थ शक्तियां ही देवता मानी गईं और उनका यजन होने लगा। बाद में मनुष्यों के ही पराक्रमी, शत्रुनाशक, लोकपालक राजा की सदृशता से देवराज इंद्र की कल्पना आई होगी। विचार वृद्धि के साथ नैतिक कल्पनाओं के आधार पर मित्र, वरूण इत्यादि देवताओं की निर्मिति हुई और उसी समय घोड़े पर चढ़ दौड़कर आने वाले दो लोकोपकारक वीर भाइयों ने ‘अश्विनौ‘ इस जुगलबंद दो देवों की कल्पना निर्माण की होगी। इस द्वन्दात्मक कल्पना का ही विकास अग्निड्ढोमौ, इंद्राग्नी, इंद्रवायू, मित्रावरूणौ इत्यादि द्वन्द्वों में दिखता है। इंद्र के साथ उसके सहायक मरूत् भी कल्पे गये और अपने कृत्यों से देवता को प्राप्त करने वाले जो ऋभु उनकी भी कल्पना आई और इन सब पर सूक्त रचना हुई। काव्यों के विषय भी बढ़ते गये और ऊपर लिखा हुआ ‘देवता लक्षण’ प्रयुक्त किया जाकर उन सारे विड्ढयों को देवत्व की प्राप्ति हुई। घोड़े, गोएं, अरण्य इत्यादि भी देवताओं में समाविष्ट किये गये। अंत में विश्वेदेव-सारे देव-जिन-जिन की हम कल्पना कर सकते हैं, उन पर भी सूक्त लिखे गये। इस देवता विकास का भी सूक्तों का कालानुक्रम निश्चित करने में उपयोग किया गया है।’ (ऋग्वेद का सूक्त विकास, पृष्ठ 14-15)

¤ अनुक्रमणी और मंत्र में मंत्रकर्ता ऋषियों के नाम
 सूक्त के आरम्भ में एक अनुक्रमणी भी होती है। जिसे शायद वेद व्यास ने ही बनाया है। इस अनुक्रमणी में यह लिखा रहता है कि इस सूक्त का ऋषि कौन है?, देवता कौन है ? और यह किस छंद में है?
    कुछ मंत्रों के अंदर भी सूक्त रचने वाले ऋषि ने अपने नाम का वर्णन किया है। जैसे कि ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 40वें सूक्त के आरम्भ में लिखा है-
ऋषि-घोड्ढा काक्षीवती, देवता-अश्विनी, छंद-जगती
इस सूक्त के 5वें मंत्र में ऋषि घोड्ढा ने अपने नाम का उच्चारण करते हुए कहा है-
    ‘युवां ह घोड्ढा पर्यश्विना यती राज्ञ ऊचे दुहिता पृच्छे वों नरा
    भूतं में अह उत भूतमक्तवेऽवेश्वावते रथिनेशक्तमर्वते।5।
    हे अश्विनी कुमारो! मैं राजकुमारी घोड्ढा सब ओर घूमती हुई तुम्हारा गुणानुवाच करती हूँ और तुम्हारा ही चिन्तन करती रहती हूँ। तुम दिन रात मेरे यहाँ निवास करते हुए रथ और अश्वों से सम्पन्न मेरे भ्राता के पुत्र को वश में रखते हो।’ (अनुवादः पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, प्रकाशकः संस्कृति संस्थान, ख्वाजा क़ुतुब नगर, बरेली, उ.प्र.)
    ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 99वें सूक्त का ऋषि वभ्रो वैखानसः, देवता इन्द्र और छन्द त्रिष्टुप् है। इसके 12वें मंत्र में सूक्त बनाने वाला वभ्र भी अपने नाम का उल्लेख करते हुए कहता है-
    ‘हे इन्द्र! अनेक हवियाँ देने की कामना करता हुआ मैं वभ्र तुम्हारी सेवा में पैदल चलकर आया हूँ, तुम मेरा कल्याण करो तथा श्रेष्ठ अन्न, सुन्दर गृह, सब पदार्थ और बल आदि मुझे दो।’ (अनुवादः पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)
    इसी मण्डल का 100वाँ सूक्त दुवस्युर्वान्दन ने बनाकर उसके अंतिम मंत्र संख्या 12 में कहा है-‘दुवस्यु ऋषियों की रस्सी का अगला भाग आपकी कृपा से ही खींचते हैं।’ (अनुवादः  पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)
    ऋग्वेद का यम-यमी संवाद भी यही सिद्ध करता है कि वेदमंत्रों की रचना मनुष्यों ने की है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 10वें सूक्त के ऋषि यमी वैवस्ती और यमो वैवस्वतः हैं और इस सूक्त के देवता अर्थात प्रतिपाद्य विषय भी यही दोनों हैं। ये आपस में भाई बहन हैं। इन दोनों ने आपस में जो बातचीत की है, वही इस सूक्त में वर्णित है। सूक्त के अंदर भी यम-यमी ने एक दूसरे को नाम लेकर संबोधित किया है।

¤ वेदों में नए नए मंत्र
‘इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि समय-समय पर वेदों के नए नए मंत्र बनते रहे हैं और वे पहले बने संग्रहों (संहिताओं अथवा वेदों) में मिलाए जाते रहे हैं। ख़ुद वेदों में ही इस बात के प्रमाण मिल जाते हैं, यथाः
    अथा सोमस्य प्रयतीयुवम्यामिन्द्राग्नी स्तोमं जनयामि नव्यम्.  -1,109,2
    अर्थात हे इंद्र और अग्नि, तुम्हारे सोमप्रदानकाल में पठनीय एक नया स्तोत्र रचता हूं.
    स नो नव्येभिर्वृड्ढकर्मन्नुक्थैः पुरां दर्तः पायुभिः पाहि शग्मैः  -ऋग्वेद 1,130,10
    अर्थात जलवर्षक और नगर विदारक इंद्र, हमारे नए मंत्र (स्तोत्र) से संतुष्ट हो कर विविध प्रकार से रक्षा और सुख देते हुए हमें प्रतिपालित करो.
    तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते  -ऋग्वेद 2,17,1
    अर्थात हे स्तोताओ, तुम लोग अंगिरा के वंशजों की तरह नई स्तुति द्वारा इंद्र की उपासना करो.
    अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया  -ऋग्वेद 4,16,21
    अर्थात हे हरि विशिष्ट इंद्र हम तुम्हारे लिए नए स्तोत्र बनाते हैं.
    यही शब्द अविकल रूप से 4/17/21; 4/19/11; 4/20/11; 4/21/11; 4/22/11; 4/23/11 और 4/24/11 में भी मिलते हैं।’
    इस तरह के और भी कई मंत्र हैं जिनका उल्लेख करते हुए प्रख्यात वेद मनीषी  डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात लिखते हैं-
    ‘‘स्पष्ट है कि इन स्तोत्रों व मंत्रों के रचयिता साधारण मानव थे, जिन्होंने पूर्वजों द्वारा रचे गए मंत्रों के खो जाने पर या उन के अप्रभावी सिद्ध होने पर या उन्हें परिष्कृत करने या अपनी नई रचना रचने के उद्देश्य से समयसमय पर नए मंत्र रचे. अपनी मौलिकता व अपने प्रयत्नों का विशेष उल्लेख अपनी रचनाओं में कर के उन्होंने अपने को देवता विशेष के अनुग्रह को प्राप्त करने के विशिष्ट पात्र बनाना चाहा है, अन्यथा, वे ‘अपने नए रचे स्तोत्रों’-इस वाक्यांश का प्रयोग, शायद, न करते.’’ (क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म?, पृष्ठ 464 व 465, लेखकः डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’, प्रकाशक ः विश्व विजय प्रा. लि., एम-12, कनाट सरकस, नई दिल्ली)

¤ वेदों में प्राचीन व नवीन ऋषियों के मंत्र संकलित हैं
    ये च ऋड्ढयो य च नूत्ना इन्द्र ब्रह्माणि जनयन्त विप्राः।
    अस्मे ते सन्तु सख्या शिवानि यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।9।।
    हे इन्द्रदेव! प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों से स्तुत्य होकर आपने जिस प्रकार उनका कल्याण किया, वैसे ही हम स्तोताओं का भी मित्रवत् कल्याण करें। आप कृपा करके कल्याणकारी साधनों से हम सबकी सुरक्षा करें।
(ऋग्वेद 7/22/9; अनुवादःपं. श्रीराम शर्मा आचार्य, मथुरा से प्रकाशित, सन् 2005 ई.)
    ‘प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों’ कहकर वेदों ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि वेदमंत्रों की रचना ऋषियों ने की और यह काम कई पीढ़ियों तक चलता रहा।
    स्वामी दयानन्द जी ने वेदों को स्वतःप्रमाण माना है और वेद स्वयं को ऋषियों की रचना बता रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि वेद का यह अनुवाद एक ऐसे महापंडित ने किया है, जो बहुत वर्षों तक आर्यसमाज का प्रतिनिधित्व करते रहे लेकिन जब उन्होंने स्वयं वेद का अनुवाद किया तो उन्होंने स्वामी जी की ग़लत मान्यताओं का अनुकरण न किया।

¤ वेदमंत्रों की रचना ऋषियों ने की
    तैत्तिरीय ब्राह्मण भी वेद के सत्यवचन को प्रमाणित करते हुए कहता है-
    यामृषयो मन्त्रकृतो मनीषिणः
    मन्त्र की रचना मनीषी ऋषियों ने की। (तै. ब्रा. 2/8/8/5)

¤ ऋषियों के इतिहास की जानकारी आवश्यक है
    सच्चा वेदार्थ जानने के लिए वेदमंत्रों की रचना करने वाले ‘कवि’ ऋषियों के इतिहास की जानकारी आवश्यक है। आज भी किसी कविता का सही अर्थ जानने के लिए उसके रचने वाले कवि के जीवन की घटनाओं के बारे में जानना ज़रूरी माना जाता है। कवि जिन घटनाओं को देखता है या जो अनुभूत करता है, अपने काव्य में उन्हीं का वर्णन करता है। अमीर ख़ुसरो, अल्लामा इक़बाल और रविन्द्र नाथ टैगोर के जीवन की घटनाओं को जाने बिना उनके काव्य का अर्थ किया जाएगा तो बहुत से स्थानों पर अर्थ का अनर्थ होना निश्चित है। वेदमंत्रों में विश्वामित्र, वसिष्ठ, घोड्ढा काक्षीवती, वभ्र, दुवस्यु और यम-यमी आदि जिन कवियों के नाम आए हैं। उनके जीवन का इतिहास जाने बिना उनके काव्य का सही अर्थ जानना संभव नहीं है।
वेद की उत्पत्ति कब और कैसे हुई?, इस रहस्य को सुलझाने के लिए भी ऋषियों का इतिहास ही काम आता है। नाभिकमल पर वास करने वाले ब्रह्मा जी और विश्वामित्र के पुरातन इतिहास को जाने बिना इसे हल करना संभव नहीं है। स्वामी जी ने वेदों में इतिहास न मानकर उनकी उत्पत्ति तक पहुंचने का एक मार्ग बंद ही कर दिया है।
    स्वामी दयानन्द जी को इन ऋषियों के प्राचीन इतिहास के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी न थी। उनके द्वारा वेदार्थ में ग़लती करने का यह एक बड़ा कारण है।

¤ राजाओं के इतिहास की जानकारी भी ग़लत
    स्वामी जी को ऋषियों के प्राचीन इतिहास की तो क्या आर्य राजाओं के नवीन इतिहास की भी सही जानकारी नहीं थी। उन्होंने सुल्तान शहाबुद्दीन ग़ौरी का राजा यशपाल से लड़कर दिल्ली पर राज्य करना बताया है और पृथ्वीराज चैहान के राज्य को इस युद्ध से 74 वर्ष  पहले ही समाप्त दिखाया है। देखिए उनकी बनाई तालिका और उनकी टिप्पणी-
आर्य राजा    वर्ष     मास    दिन     
1 पृथिवीराज    12    -2    -19     
2 अभयपाल    14    -5    -17     
3 दुर्जनपाल          -11    -4    -14     
4 उदयपाल          -11    -7    -3     
5 यशपाल          -36    -4    -27    
    ‘राजा यशपाल के ऊपर सुल्तान शाहबुद्दीन गौरी गढ़ गजनी से चढ़ाई करके आया और राजा यशपाल को प्रयाग के किले में संवत् 1249 साल में पकड़ कर कैद किया। पश्चात् ‘इन्द्रप्रस्थ’ अर्थात दिल्ली का राज्य आप (सुल्तान शाहबुद्दीन) करने लगा।’ (देखें सत्यार्थप्रकाश, एकादशमसमुल्लास, पृ.274)
(41) क्या स्वामी जी द्वारा दी गई इस जानकारी को सही माना जा सकता है?
    हक़ीक़त यह है कि शाहबुद्दीन ग़ौरी 1149 ई. में पैदा हुआ और 1205 ई. में उसकी मृत्यु हुई। पृथ्वीराज चैहान 1149 ई.-1192 ई. में तराइन की दूसरी जंग में शाहबुद्दीन ग़ौरी से हार कर क़ैद हुआ और 1192 ई. में क़त्ल किया गया।

¤ सब्ज़ियां खाने से जीव को पीड़ा नहीं होती?
    इतिहास की तरह जीव विज्ञान के विषय में स्वामी जी की मान्यताएं ठीक नहीं हैं। वह कहते हैं-
‘...हरित ‘शाक के खाने में जीव का मारना उनको पीड़ा पहुंचनी क्योंकर मानते हो? भला जब तुमको पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दिखती और जो दिखती तो हमको दिखलाओ।’ ( देखें सत्यार्थप्रकाश, द्वादशमसमुल्लास, पृष्‍ठ 369)
(42) आज पहली क्लास का बच्चा भी जानता है कि पेड़-पौधे जीवित वस्तुओं ;स्पअपदह जीपदहेद्ध में आते हैं। सब्ज़ी खाने से उन पर निवास करने वाले जीव भी मरते हैं। यह एक सच्चाई है। खाने के लिए गाजर-मूली को ज़मीन से खोद कर निकाला जाता है। तब वे भी मर जाती हैं और उन्हें पीड़ा भी होती है। इस वैज्ञानिक सत्य को झुठलाना ज्ञान कहा जायेगा अथवा अज्ञान?
दूसरों पर ऐतराज़ करने की जल्दी में स्वामी जी अपनी मान्यता भी भूल गए कि
‘स्वामी जी ने मनुष्य, पशु और वनस्पति आदि में जीव एक ही माना है।’ ( देखें सत्यार्थप्रकाश, नवम., पृ.170)
यह बात मान ली जाए तो मूली काटना भी आदमी की गर्दन काटने के बराबर का ही जुर्म ठहरता है और दोनों कामों पर एक ही धारा लगनी चाहिए और एक ही सज़ा मिलनी चाहिए। पेड़-पौधों पर अनगिनत सूक्ष्म जीवाणु भी वास करते हैं। सब्ज़ियां खाने से वे भी मरते हैं। मक्खी और मच्छर के क़त्ल पर भी वही सज़ा मिलने लगे जो कि आदमी को क़त्ल करने पर मिलती है तो आर्य समाजी भाई स्वयं ही कहने लगेंगे कि आवागमन नहीं होता।
(43) अगर मनुष्य, पशु और सब्ज़ी में जीव एक ही है तो फिर उन सबके जीवन का अंत करना बराबर का अपराध क्यों नहीं माना जाता?
(44) क्या ऐसा करके मनुष्य समाज एक मिनट के लिए भी ज़िन्दा रह सकता है?
आवागमन की मान्यता के अनुसार जो सब्ज़ियाँ और छोटे बड़े जीव अब नज़र आ रहे हैं, ये सब पहले कभी मनुष्य हुआ करते थे। वे मनुष्य ही मर कर अपने पाप भुगतने के लिए इन योनियों में पैदा हो गए हैं। केवल रूप रंग बदला है, इनमें आत्मा वही माननी पड़ेगी। ऐसे में यह डर बना रहता है कि जिस आलू को हम छील रहे हैं, कहीं यह हमारे माता-पिता ही न हों?
    हमारे माता पिता न भी हों तब भी वे किसी न किसी मनुष्य के माता पिता या बच्चे तो हैं ही, यह निश्चित है। आवागमन को माना जाए तो शाकाहारी भी आदमख़ोर ठहरते हैं। इस अपराध बोध से आदमी तभी बच सकता है, जबकि वह आवागमन को असत्य मान ले।

¤ शाकाहार श्रेष्ठ क्यों माना जाए?
    आवागमन की मान्यता शाकाहार के श्रेष्ठ और सात्विक प्रकृति का होने की भी जड़ काट देती है।
‘(प्रश्न) मनुष्य और पश्वादि के शरीर में जीव एक सा है वा भिन्न-भिन्न जाति के?
    (उत्तर) जीव एक से हैं परन्तु पाप पुण्य के योग से मलिन और पवित्र होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.170)
    ‘स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः। पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।।  
जो अत्यन्त तमोगुणी हैं वे स्थावर, वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सप्र्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं। (मनुस्मृति का श्लोक, सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.174)
‘शरीरजैः कर्मदोड्ढैर्याति स्थावरां नरः।
जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म... (मनुस्मृति का श्लोक, सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.172)
स्वामी जी के मतानुसार मनुष्य, पशु और पेड़-पौधों में एक ही जीव अपने पाप-पुण्य के कारण जन्म लेता रहता है। जो मनुष्य तमोगुणी होते हैं वे वनस्पति (सब्ज़ी), मछली और हिरन आदि बनकर पैदा होते हैं। जो लोग चोरी, व्यभिचार और हत्या जैसे जघन्य पाप करते हैं। वे आलू-गोभी बन जाते हैं। आलू, टमाटर, केले और नारियल आदि की यह देह मनुष्यों को उनके पाप की मलिनता के कारण प्राप्त होती है। चोरी, व्यभिचार और हत्या जैसे मलिन कर्मों के परिणामस्वरूप उत्पन्न देह को खाने के बाद वह खाने वाले के ्यरीर का अंग बनेगी और उसे भी मलिन बना देगी। रोज़ रोज़ इनका खाना मलिनता को बढ़ाता रहेगा और वे खाने वाले के मन में भी चोरी, व्यभिचार और हत्या की भावना जगा सकती हैं। कहावत ‘जैसा खाय अन्न वैसा हो जाय मन’ मशहूर ही है।
(45) सवाल यह उठता है कि किसी तमोगुणी जीव को आलू, गोभी, टमाटर और केले आदि की जो देह उसके पाप की मलिनता के कारण मिली है। उसे खाकर मनुष्य की तामसिक प्रवृत्ति पुष्ट होना तो समझ में आता है लेकिन सात्विक प्रवृत्ति को कैसे बल मिल सकता है?
(46) मनुस्मृति ने लौकी, कद्दू, मछली और हिरन, सबको एक ही श्रेणी ‘अत्यन्त तमोगुणी’ में रख दिया है। तब एक ही श्रेणी के एक जीव सब्ज़ी को खाकर उसे खाने वाले ख़ुद को पवित्र और श्रेष्ठ आहार ग्रहण करने वाला क्यों समझते हैं?
मछली और हिरन को मारने में उन्हें कष्ट होने की बात कही जा सकती है लेकिन वह तो पेड़ पौधों को भी होता है। मछली और हिरन आदि के कष्ट को तो कम किया जा सकता है लेकिन गाजर और चुक़न्दर के कष्ट को कम करने का कोई उपाय भी नहीं है।
(47) पशु-पक्षी को जब खाया जाता है तब उनमें प्राण और चेतना नहीं होती लेकिन जब आदमी गाजर खा रहा होता है तब वे जीवित होती हैं। गाजर और चुक़न्दर का रस वास्तव में उनके शरीर का रक्त है, जिसे शाकाहारी बड़े शौक़ से पीते हैं और ऐसा करके भी वे ख़ुद को पवित्र और श्रेष्ठ क्यों समझते रहते हैं?

¤ वेदपाठी सन्यासी इन्जीनियर से नीचे और दैत्य के बराबर कैसे?
‘तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गुणाः। नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्विकी गतिः।। (सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.173)
जो तपस्वी, यति, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलाने वाले, ज्योतिड्ढी और दैत्य अर्थात् देहपोड्ढक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्वगुण के कर्म का फल जानो।
(48) वेदपाठी, सन्यासी और तपस्वी को हवाई जहाज़ के पायलट और दैत्य के साथ एक ही श्रेणी में रखना कैसे न्याय हो सकता है?
(49) क्या तपस्वी, यति, सन्यासी और वेदपाठी को पायलट और दैत्य के समकक्ष मानना उनका पदावनति और अपमान नहीं है?
(50) प्रथम सत्वगुण के कर्म करने के बाद भी आदमी मरने के बाद दैत्य बनकर पैदा हुआ तो उसे क्या फ़ायदा हुआ?
    सत्वगुणी कर्म करके दैत्य बनने वाले से अच्छे तो वे अत्यन्त तमोगुणी व्यक्ति रहे जो किसी की हत्या करके या चोरी और व्यभिचार करके पीपल, तुलसी आदि वृक्ष या गाय आदि पशु बन गये और आदर पाते रहे।
प्रथम सत्वगुण से ऊँचा दर्जा मध्यम सत्वगुण का है। मनुस्मृति के अनुसार मध्यम सत्वगुण के कर्म करने वाला विद्युत विद्या का जानकार अर्थात इलैक्ट्रिकल इन्जीनियर बनकर पैदा होता है। इससे ऊँचा दर्जा उत्तम सत्वगुण के कर्म करने वालों को मिलता है। उन्हें विमानादि यानों को बनाने वाले का जन्म मिलता है। (देखिए सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.172)
यहाँ भी तपस्वी, यति, सन्यासी और वेदपाठी हवाई जहाज़ बनाने वाले इन्जीनियर से दो दर्जे नीचे रह गए। इनके बराबर केवल ब्रह्मा जैसे सब वेदों के वेत्ता को रखा गया है। हवाई जहाज़ बनाने वाले इन्जीनियर को तो सब वेदों के ज्ञानी ब्रह्मा जी जैसे विद्वान के बराबर रख दिया और वेदपाठी, सन्यासी, यति और तपस्वियों को उससे दो दर्जे नीचे रखा। उन्हें बिजली मैकेनिक या इन्जीनियर से भी नीचे रखा गया। इससे भी बढ़कर यह कि उन्हें पायलट और दैत्यों की श्रेणी में रख दिया गया।
(51) आवागमन को मानने वाले वेदपाठी सन्यासियों ने जीवन भर की तपस्या के बाद पाया भी तो क्या, एक दैत्य के बराबर दर्जा पाया?
(52) चोरी, व्यभिचार और हत्या करने वाले पेड़ बन गए तो उनका क्या बिगड़ गया? वे तो बाल-बच्चों को पालने और ब्याहने की चिंता से और मुक्त हो गए। आवागमन की मान्यता से पापियों को फ़ायदा और सत्कर्मियों को नुक्सान होता हुआ साफ़ दिख रहा है। वे पीपल, बरगद और तुलसी आदि वृक्ष बन गए तो कुछ जगहों पर लोग उनकी पूजा करते हुए, उन्हें सम्मान देते हुए भी मिल जाएंगे।

¤ आवागमनः समाज का पतन
   हमें जानना चाहिए कि आज वेदपाठ करना पिछले जन्म के कर्मों का फल नहीं है। स्वयं स्वामी जी ने वेद का प्रचार करने के लिए जगह जगह पाठशालाएं खोलीं और आर्य समाज मन्दिर बनवाए। इससे वेदपाठ करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी भी हुई। अगर वेदपाठी होना पिछले जन्म के कर्मों का फल होता तो स्वामी जी के प्रयास से वेदपाठियों की संख्या न बढ़ती।
    यही बात बिजली और हवाई जहाज़ बनाने वालों की है। सत्वगुण के कर्म करने से यह योग्यता पैदा हुआ करती तो आज दुनिया में आर्य समाजी सबसे ज़्यादा बिजली और हवाई जहाज़ बना रहे होते। हक़ीक़त इसके खि़लाफ़ है। बिजली और हवाई जहाज़ का सबसे ज़्यादा प्रोडक्शन वे कर रहे हैं जो स्वामी जी के अनुसार तमोगुणी हैं।
    सवारी और युद्ध के विमान आज भी भारत में नहीं बनते। भारतीय इन्हें उन विदेशियों से ख़रीदते हैं जो आवागमन में विश्वास नहीं रखते। योग्यता और कला कौशल का गुण इसी जन्म के अभ्यास से विकसित होता है। इसे पिछले जन्म के कर्म का फल मानना लोगों को ग़लत जानकारी परोसना है। जिसके कारण समाज के लोग आवश्यक पुरूड्ढार्थ नहीं करते और वे दूसरों से पिछड़ कर उनके अधीन हो जाते हैं। ग़लत विचारों को त्यागे बिना राजनैतिक प्रभुत्व पाना और वैज्ञानिक उन्नति करना संभव नहीं है।
  
¤ आवागमन का त्याग ज़रूरी है देश की सीमाओं की रक्षा के लिए
    स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश, नवमसमुल्लास, पृ.174 पर बताया है कि जो अत्यन्त रजोगुणी कर्म करते हैं वे मरने के बाद शस्त्रधारी भृत्य अर्थात सैनिक बनकर पैदा होते हैं। यह एक ग़लत बात है। इस तरह की बातें करना देश की सीमाओं को ख़तरे में डालना है। विदेशी हमलावरों से हारने का एक कारण ऐसी मान्यताएं भी थीं।
किसी का सैनिक बनना उसके  पूर्वजन्म के कर्म का फल नहीं होता। हरेक राज्य अपनी अपनी सीमा के क्षेत्रफल और सेना पर ख़र्च करने की क्षमता के अनुसार ही सैनिक तैयार करता है। जिस राज्य को जितने सैनिक चाहिए होते हैं। वह उनकी भर्ती करके उन्हें प्रशिक्षण देता है और वे सैनिक बन जाते हैं। युद्धकाल में ज़्यादा सैनिकों की ज़रूरत पड़ती है तो राज्य ज़्यादा लोगों को भर्ती कर लेता है। जिन दांभिक पुरूषों को स्वामी जी ने तमोगुणी (सत्यार्थ.,पृ.174) माना है, वे भी सेना में भर्ती होकर लड़ते हैं। पायलट और बिजली के जानकार भी मैदान में लड़ते हैं। जिन्हें स्वामी जी ने सत्वगुणी माना है। सत, रज, तम तीनों गुणों के मालिक सेना में इकठ्ठे मिलेंगे और सेना से रिटायर होकर वे सब फिर अलग अलग काम करते हैं। कोई खेती करता है, कोई व्यापार करता है, कोई अध्यापक बन जाता है और कोई डाकू-लुटेरा भी बन जाता है।
  Unicode Book Part: one-Two-and-Last 

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